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________________ कर्मवाद और समाजवाद में कहाँ विसंगति, कहाँ संगति ? १८९ कम्युनिज्म या साम्यवाद कहते हैं) की नीति - सम्पत्ति पर समाज के स्वामित्व की बनी। इस प्रकार वर्तमान समाजवाद का ध्येय बन गया - आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन। और यह परिवर्तन वह सत्ता के जरिये करना चाहता है, कर रहा है । ' कर्मवाद आर्थिक व्यवस्था में सीधे परिवर्तन का या राज्यसत्ता द्वारा परिवर्तन का कोई सूत्र प्रस्तुत नहीं करता। वह आर्थिक व्यवस्था में स्वैच्छिक परिवर्तन, यथासंविभागव्रत एवं विषमता का अन्त लाने के लिए स्वेच्छया समता-साधना का प्रयोग प्रस्तुत करता है। भगवान् महावीर ने इच्छापरिमाणव्रत, परिग्रह परिमाण (मर्यादा) तथा अर्थशोषण रोकने के लिए अस्तेय व्रत का विधान किया। उस समय के शासक प्रायः सत्तालोलुप, विषयभोगविलास में रत एवं वैभव वृद्धि में रुचि लेने वाले होते थे। एकतंत्र अथवा राजतंत्र का युग था । यथाराजा तथाप्रजा की कहावत चरितार्थ थी। भगवान् महावीर स्वेच्छा से परिवर्तन में विश्वास करते थे, बलात् परिवर्तन में उनका विश्वास नहीं था । जहासुहं देवाणुप्पिया, मा पडिबंध करेह, यही उनका मूलमंत्र था। आर्थिक पक्ष के दर्शन में समाजवाद और कर्मवाद की मान्यता में काफी अन्तर आ गया। यद्यपि आर्थिक पक्ष के विषय में समाजवाद और कर्मवाद में कोई मेल नहीं है, दोनों के विचारों में अन्तर है, फिर भी दोनों के बीच इतना संघर्ष भी नहीं है । कर्मवाद के प्ररूपक भगवान् महावीर एवं गणधर तथा उनके प्रतिपादक-समर्थक श्रमणगण ने महारम्भ और महापरिग्रह को एवं पन्द्रह प्रकार के कर्मादानरूप व्यवसायों (खरकर्मों) को समाज में विषमता, शोषण, उत्पीड़न, मोह-ममत्व एवं अहंत्व में वृद्धि का कारण तथा महारम्भी, महापरिग्रही को नरकगतिगामी बताकर एवं गृही श्रावक वर्ग के लिए अपारम्भ - अपरिग्रह होने की अनिवार्यता का प्रतिपादन किया। आज समाज में पूँजीवाद विकसित हुआ है, वह इच्छाओं पर नियंत्रण के अभाव में हुआ है । भ. महावीर ने इच्छापरिमाणव्रत गृहस्थों के लिए बताया, उसका आशय यही था कि अपनी इच्छाओं को इतना तूल मत दो, जिससे हजारों व्यक्तियों को तुम्हारे अमर्यादित संग्रह (परिग्रह) से अभाव-पीड़ित होना पड़े। महावीर ने यह नहीं कहा कि व्यापार मत करो, परन्तु उन्होंने कहा कि उसकी सीमा करो, अर्थोपार्जन के साधन अशुद्ध न हों, साथ ही वे साधन दूसरे जीवों के लिए घातक १. कर्मवाद पृ. २२० २. (क) देखें - उपासकदशा अ. १ आनन्द श्रावकाधिकार (ख) स्थानांग सूत्र ठाणा - ४ - चउहिं ठाणेहिं नेरइयाउत्ताए कम्मं पगरेति तं जहा - महारंभेण, महापरिग्गहेण, पंचिंदिय-वहेण, कुणिमाहारेणं चेव ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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