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कर्मवाद और समाजवाद में कहाँ विसंगति, कहाँ संगति ? १८७
से जीने के उद्देश्य से प्रचलित हुआ था; जबकि तथाकथित समाजवाद आया थाविषमतायुक्त समाज व्यवस्था में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से । दोनों के उद्देश्य में काफी अन्तर है। दोनों में इतनी-सी समानता अवश्य है कि चार्वाक दर्शन और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मूलक आधुनिक समाजवाद, इन दोनों का दर्शन अनात्मवादी है। जबकि कर्मवाद पूर्णतया आत्मवादी है।
वस्तुतः जो दर्शन केवल वर्तमान सम्मत होता है वह भूत और भविष्य की- अदृश्य की बातों के विषय में कतई नहीं सोचता और न ही कोई चर्चा उठाता है। उसे लम्बी चिन्ता या चर्चा में पड़ने की आवश्यकता ही नहीं होती; वह केवल वर्तमान दृष्टि पर ही नजर रखता है। उसे बहुत बारीकी में जाने या अदृश्य जगत् में जाने या उसके विषय में कुछ सोचने की कोई अपेक्षा ही नहीं होती। जो प्रत्यक्ष है, दृष्ट है या जो उपलब्ध है, उसी को वह अपनाता है। वह केवल प्रत्यक्षवादी है। उसे अन्तरंग में सूक्ष्मतम अवगाहन की आवश्यकता नहीं होती। समाजवाद का द्वितीय सिद्धान्त, व्यक्ति का निर्माण : परिस्थिति पर निर्भर
इस दृष्टि से केवल वर्तमान में परिस्थितिवाद पनपता है। उसका सिद्धान्त यही बन जाता है कि मनुष्य का व्यक्तित्व परिस्थिति के अनुसार बनता है। जैसी परिस्थिति, वैसा ही व्यक्ति निर्मित होगा। अतः समाजवाद का द्वितीय सिद्धान्त हुआ-परिस्थितिवाद। - कर्मवाद समाजवाद के इस द्वितीय सिद्धान्त-परिस्थितिवाद से सहमत नहीं है। वह परिस्थितिवाद को मान्य नहीं करता। एकान्त परिस्थितिवाद को वही मान सकता है, जो केवल वर्तमान को स्वीकार करता हो। कर्मवाद तो तीनों काल से जुड़ा हुआ है, इसलिए वह एकान्ततः परिस्थितिवाद को स्वीकार नहीं कर सकता। वह परिस्थिति को एक निमित्त या हेतु मान सकता है। किन्तु परिस्थितिवाद की एकाधिकारिता उसे स्वीकार नहीं हो सकती; क्योंकि कर्मवाद की स्वीकृति के साथ आत्मवाद (चेतन) की स्वीकृति है और आत्मा की त्रैकालिक अवस्थिति (परिणामी-नित्यता) मानी जाने से पूर्वजन्म और आगामी (पुनः) जन्म की स्वीकृति है। इसलिए वहाँ एकान्त परिस्थितिवाद स्वीकार्य नहीं हो सकता। समाजवाद का तृतीय सिद्धान्तः समाज व्यवस्था का परिवर्तन
केवल वर्तमान की तथा एकान्ततः परिस्थिति की स्वीकृति के आधार पर समाजवाद का तीसरा सिद्धान्त प्रतिफलित होता है-वर्तमान समाज व्यवस्था का १. घट घट दीप जले पृ. २९, ३१ २. वही, पृ. २९
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