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________________ कर्मवाद और समाजवाद में कहाँ विसंगति, कहाँ संगति ? १८५ सासए (तपस्या से अवशिष्ट कर्मों का क्षय करके शाश्वत सिद्ध (परमात्मा) हो जाता है। जो मनुष्य पाप कर्म करते हैं, वे घोर नरक में पड़ते हैं, किन्तु जो आर्य धर्म का आचरण करते हैं वे देवगति में जाते हैं। समुद्रपाल मुनि पुण्य और पाप (शुभ-अशुभ) दोनों ही प्रकार के कर्मों का क्षय करके संयम में निश्चल अथवा कर्म संग रहित तथा सब प्रकार से विमुक्त होकर विशाल संसार प्रवाह को तैर कर मोक्ष (अपुनरागमन स्थान) को गए। ये सब कर्मवाद के सन्दर्भ में उल्लेख हैं। ' इसके अतिरिक्त भगवान् ने अठारह पापस्थान, पन्द्रह कर्मादान, विविध प्रकार से कर्मों के आने के स्रोतों (आस्रवों) के तथा बन्ध के कारणों का निर्देश संसार के समस्त प्राणियों की अपेक्षा से बताया है और मानवसमाज की चेतना विकसित और कर्मक्षय करने में सक्षम होने से मनुष्यों के लिए समस्त धर्मशास्त्रों एवं धर्मग्रन्थों में विशेषरूप से निर्दिष्ट है। भगवान् महावीर आदि तीर्थंकरों द्वारा चतुर्विध संघ भी धर्मदृष्टि से स्थापि एवं रचित किया गया है। यही कारण है कि जैन- कर्मवाद से इस धर्मतीर्थ या आधुनिक भाषा में कहें धर्ममय संघ या धर्मप्रधान समाज का अत्यधिक सम्बन्ध एवं संगति है। भारतीय पेटर्न के समाजवाद (समाजव्यवस्था) का कर्मवाद से सम्बन्ध तो रखा है परन्तु उपनिषदों में जहाँ सह-अस्तित्व या सहयोग पूर्वक जीवन जीने का सूत्र है, वहाँ कर्मवाद पर कर्म के साथ उसका कोई भी वास्ता नहीं रखा है। गीता में जहाँ निष्काम कर्म की या महाभारत में जहाँ पुण्य-पाप की चर्चा है, वहाँ अवश्य ही कर्मवाद के साथ उसका सम्बन्ध व्यक्त किया है। व्यासजी ने अठारह पुराणों का निचोड़ दो वाक्यों में देते हुए कह दिया है-“अठारह पुराणों में व्यास के दो ही वचन सारभूत हैं- “पुण्य के लिए परोपकार और पाप के लिए परपीड़न।”२ इस प्रकार भारतीय पेटर्न का समाजवाद परस्पर सहयोग प्रधान था। वर्तमान समाजवाद : एक समीक्षा आधुनिक समाजवाद के साथ कर्मवाद का कहाँ मेल है, कहाँ बेमेल है ? इसे समझने के लिए पहले इस समाजवाद का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है। वर्तमान में भारत सरकार ने भारतीय लोकतंत्र के साथ समाजवादी समाज रचना का नारा कई वर्षों से १. देखें-- क) उत्तराध्ययन ३ / २०, (ख) वही, १८/२५, (ग) वही २१/२४ २. "अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचन - द्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥' - व्यास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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