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________________ १८४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) अतिक्रमण न कर सकें, इसके लिए व्रत, नियम आदि अवश्य बताये। भ. महावीर ने मानवों के प्रति ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति मैत्री, गुणिजनों के प्रति प्रमोद, दुःखितों के प्रति करुणा एवं विपरीत वृत्ति-प्रवृत्ति वालों के लिए माध्यस्थ्यभाव का सन्देश दिया। मनुष्यों में वर्णविभाग के कारण उच्चता-नीचता, छुआछूत, या स्पृश्य-अस्पृश्य के भेद को उन्होंने हिंसाजनक बताया, विषमता का उत्पादक भी। इसके लिए उन्होंने समस्त प्राणियों के प्रति समभाव (समता), आत्मौपम्यभाव का उपदेश दिया। इतना ही नहीं, साधुवर्ग के लिए आजीवन और गृहस्थवर्ग के लिए अल्पकालिक समता-साधना (सामायिक व्रत) का विधान किया। उन्होंने बताया कि कोई भी प्राणी आत्मा की दृष्टि से न तो हीन है, न अतिरिक्त (उच्च) है। हीनता और उच्चता की गौरवग्रन्थि अभिमानवर्द्धक है, जातिमद आदि ८ मद सम्यक्त्व के घातक हैं, महामोह कर्म में वृद्धि करने वाले हैं। ये सब विधान या समाज व्यवस्था के नियम- व्रत, त्याग, प्रत्याख्यान की प्रेरणा कर्मवाद के सन्दर्भ में भगवान महावीर ने की। भगवद् गीता में जिस प्रकार बताया है-“एक दूसरे के लिए परस्पर शुभ भावना करने वालों को परम श्रेय प्राप्त होगा।" तत्त्वार्थसूत्र में जीवों का मुख्य गुण “परस्पर उपग्रह (उपकार) करना, बतया है।''३ । भगवान् महावीर ने गृहस्थों को सामाजिक जीवन अच्छी तरह जीने के लिए पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रत के पालन की प्रेरणा दी है। साधुवर्ग के लिए पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दशविध श्रमण धर्म आदि के पालन का उपदेश दिया है। व्रत, महाव्रत, नियम, धर्म आदि की प्रेरणा भी भगवान महावीर ने कर्मवाद के परिप्रेक्ष्य में दी है। प्रश्न-व्याकरणसूत्र इस तथ्य का साक्षी है। वहाँ कर्मों के आसव की अपेक्षा से हिंसा आदि पांच आम्नव द्वार तथा कर्मों के संवर (निरोध) की अपेक्षा से अहिंसा, सत्य आदि पांच संवरद्वार बताए हैं। आगमों में यत्र-तत्र साधकों की साधना के. द्वारा साध्य हो जाने की स्थिति में शास्त्रकार स्वयं कहते हैं-खवित्ता पुव्वकम्माई संजमेण तवेण य (संयम और तप से पूर्व कर्मों का क्षय करके) तवसा धुय कम्मसे, सिद्धे हवइ १. (क) मित्ती मे सव्वभूएसु । (ख) सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। ___माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव! अमितगति सामायिकपाठ २. "नो हीने नो अइरिते।" -आचारांग श्रु.१ ३. (क) परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ। -गीता ३/११ (ख) “परस्परोपग्रहो जीवनाम्"-तत्त्वार्थसूत्र ५/२१ ४. देखें-प्रश्न-व्याकरण सूत्र में पांच आम्रवद्वार एवं पांच संवरद्वार ५. उत्तराध्ययन २५/४५, तथा २८/३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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