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________________ कर्मवाद और समाजवाद में कहाँ विसंगति, कहाँ संगति ? १८३ गृहस्थों का धर्म भी बताया और साधुओं का भी। उसी धर्म के प्रकाश में उन्होंने अर्थ-काम पुरुषार्थ पर नियंत्रण बताया। यही कारण है कि उन्होंने गृहस्थ (श्रावक) धर्म का प्रतिपादन करते समय अर्थ और काम को धर्म के नैतिकता के अंकुश में लाने के लिए ही ग्रामधर्म, नगरधर्म आदि दस धर्मों का निर्देश किया। और गृहस्थ के लिए पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का विधान किया। उन्होंने अर्थपुरुषार्थ पर धर्म का अंकुश लाने के लिए तीसरे(अचौर्य अणुव्रत) और पांचवें अणुव्रत (परिग्रह परिमाण व्रतों) के सन्दर्भ में बताया कि चोरी व चोर को सहायता करना, चोर के द्वारा लाया हुआ माल लेना, स्वयं तस्करी करना, राज्य के नियमों के विरुद्ध आचरण करना, ठगी करना, तौल नाप में धोखा-धड़ी करना, तथा धन, धान्य, द्विपद (आश्रित दास-दासी) चतुष्पद (आश्रित पशु) सोना-चांदी, सिक्के आदि के संग्रह का अतिक्रमण करना, तथा भयंकर कर्मों का उपार्जन हो, ऐसे १५ प्रकार के व्यवसाय (कर्मादान) करना गृहस्थ धर्म के विरुद्ध है, त्याज्य दोष हैं।' इसी प्रकार अहिंसादि, धर्ममर्यादा का अतिक्रमण गृहस्थ समाज में न हो, इसके लिए उन्होंने अपने आश्रित पशुओं, मनुष्यों या कर्मकरों की रोटी-रोजी का विच्छेद करने, पशुओं और आश्रित मनुष्यों पर अतिभार लादना, जानबूझ कर संकल्प पूर्वक किसी मनुष्य, पशु आदि की हिंसा ( हत्या, मारपीट, सताना आदि) कराना, अपने उपभोग और परिभोग के साधनों (वस्त्र, पानी, वनस्पति जन्य आहार आदि) की सीमा (मर्यादा) का अतिक्रमण करना, कन्या, गोवंश, भूमि, आदि के लिए झूठ बोलना, किसी की धरोहर को हड़पना, धरोहर के विषय में झूठ बोलना, झूठी साक्षी देना, झूठे लेख, दस्तावेज या बहीखाते तैयार करना, षड्यंत्र रचना, शस्त्रास्त्र का संग्रह करना, दूसरों को जीवहिंसा या शिकार के लिए शस्त्रास्त्र देना, व्यभिचार या वेश्यागमन करना, स्वयं की विवाहित स्त्री के सिवाय अन्य किसी भी (नर, देव या तिर्यञ्च) स्त्री के साथ अब्रह्मचर्य का सेवन करना, स्वकीय विवाहित स्त्री के साथ भी ब्रह्मचर्य की मर्यादा न रखना, कामभोग की तीव्रता, सीमा से अतिरिक्त धन-धान्यादि का संग्रह करना, अतिथि के लिए या समाज के पीड़ित या अभावग्रस्त के लिए अपने उलब्ध साधनों में से संविभाग न करना। ये और इस प्रकार के दोषों (अतिचारों) का निवारण गृहस्थवर्ग के लिए अनिवार्य बताकर अर्थ और काम पर नियंत्रण किया। उन्होंने गृहस्थ समाज को विवाहविधि या व्यापारविधि, अथवा युद्धविधि या शिल्पविधि नहीं बताई, परन्तु समाज व्यवस्था में अर्थ और काम धर्म मर्यादा का १. देखें-आवश्यक सूत्र : श्रावक प्रतिक्रमण १. देखें-आवश्यक सूत्र के अन्तर्गत श्रावक प्रतिक्रमण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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