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१८२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) ..
पुरुषार्थ का स्वर तेज हुआ। वेदव्यास जी को कहना पड़ा-“मैं बांहें ऊपर करके चिल्ला रहा हूँ, किन्तु मेरी कोई नहीं सुनता। तथ्य यह है कि-धर्मपुरुषार्थ से अर्थ और काम दोनों प्राप्त होते हैं, फिर उस धर्म का सेवन (आचरण) क्यों नहीं करते?'' एकांगी अर्थ-काम-प्रधान समाज रचना के दोष
जब अर्थ और काम प्रधान समाज व्यवस्था थी, तब व्यक्ति निरंकुश होकर अर्थ का संग्रह करता, इसी प्रकार व्यक्ति अपनी ही सुख-सुविधाओं, ऐश-आराम, आवश्यकताओं, तथा इन्द्रियविषयोपभोग को अधिक महत्त्व देने लगा। फलतः समाज में स्वार्थ-अन्धस्वार्थ की अपेक्षा और परार्थ की उपेक्षा; ये दो स्थितियाँ निर्मित हुईं। इससे व्यक्तिवाद बढ़ा, समूहवाद या समाजवाद का मूल्य घटने लगा। उपनिषद्कालीन ऋषियों द्वारा परस्पर सहयोगी मानव समाज की प्रेरणा
उपनिषद्काल के ऋषियों का ध्यान इस ओर गया । उन्होंने सह-अस्तित्व एवं सहजीवन की, परस्पर सहयोग की, कर्तव्य और उपभोग में समता की शिक्षाएँ दी। उन्होंने कहा-“हम दोनों (व्यक्ति और समूह) परस्पर एक दूसरे की रक्षा करें, साथ-साथ भोजनादि का उपभोग करें, हम दोनों साथ-साथ मिलकर अपनी शक्ति का उपयोग करें। हमारा अध्ययन विचार और स्मृति तेजस्वी हो, हम परस्पर द्वेष न करें। हमारी पानीयशाला, हमारी विचारगोष्ठी समिति या परिषद् समान हो, हमारे विचार एक हों, हमारा आचरण भी एक विचार से अनुप्राणित हो। इस प्रकार के सामूहिक नीतिमय जीवन पर ऋषियों ने जोर दिया। गीता में भी देवों और मनुष्यों के परस्पर सहयोग के विधान का उल्लेख है। भ. महावीर ने अध्यात्ममूलक समाज-व्यवस्था के सूत्र दिये ।
भगवान् महावीर ने न तो इस प्रकार की अर्थ-काम प्रधान समाज व्यवस्था दी, और न ही इस प्रकार की समाज व्यवस्था का विधि-विधान दिया। उन्होंने मुख्यतया अध्यात्ममूलक समाजव्यवस्था के सूत्र दिये। उन्होंने समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री अथवा कामशास्त्री की मर्यादा का कार्य नहीं किया, अपितु एक धर्माचार्य की सीमा का कार्य किया। उस दायित्व के तहत उन्होंने मुख्यतया धर्म का (धर्मार्जित) व्यवहार बताया।
१. ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च, स धर्मः कि न सेव्यते।। महाभारत २. (क) सह नौ वेवतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्य करवावहै। तेजस्विनाववधीतमस्तु, मा विद्विषावहै।"
(ख) समानो मंत्रः समितिः समानी, समानी प्रपा सहचित्तमेषाम्।' ३. धज्जियं च ववहारं बुद्धे हायरियं सया । - उत्तराध्ययन १/४२
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