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________________ कर्मवाद और समाजवाद में कहाँ विसंगति, कहाँ संगति ? १८१ के लिए उपयुक्त समझा था। 'समाजधर्म' में 'सह-अस्तित्व', सहयोग पूर्ण जीवन, समान व्यवहार, कर्तव्यों का पालन, समाज में अहिंसादि धर्म-मर्यादा का, सदाचार का पालन, द्वेष, घृणा, हिंसा, पक्षपात, अन्याय, अनीति आदि अधर्ममूलक एवं पापवर्द्धक व्यवहारों से दूर रहना, इत्यादि अर्थ प्रतिफलित होते हैं। कर्मवाद द्वारा निरूपित कर्मविश्लेषण धर्म और कर्म दोनों दृष्टियों से मूल बात यह है कि जहाँ धर्म शब्द आया, वहाँ जैन-दर्शन के मर्मज्ञ 'कर्मवाद' की दृष्टि से सोचते हैं। क्योंकि जैन कर्मवाद धर्म और कर्म दोनों दृष्टियों से कर्म की व्याख्या करता है। आम्नव और संवर, बंध और मोक्ष तथा निर्जरा, दोनों प्रतिद्वन्द्वी शब्दों का कर्मवाद में समावेश होता है। इस दृष्टि से भारतीय पैटर्न का 'समाजधर्म' ही धर्मप्रधान समाजवाद का उत्कृष्टरूप था। प्रागैतिहासिक काल में भ. ऋषभदेव ने जो समाज रचना की, वह पहले नैतिकता और धार्मिकता दोनों ही पृष्ठभूमि पर आधारित थी। बाद में उन्होंने जो धर्मप्रधान संघ रचना की, उसमें धार्मिकता और आध्यात्मिकता का समावेश था। दोनों प्रकार के समाज-निर्माण को हम क्रमशः 'जनशासन' और 'जिनशासन' कह सकते हैं। परन्तु दोनों ही प्रकार की समाज रचना के पीछे आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद के सूत्र पृष्ठभूमि में अव्यक्तरूप से रहे हैं। प्रत्येक वाद के पीछे कर्मवाद का पुट उन्होंने कर्मवाद का पुट प्रत्येक वाद के पीछे दिया है। आत्मा स्वयं कर्मों का कर्ता, भोक्ता है, अपने सुख-दुःख के, हानि लाभ के तथा हित-अहित के लिए उत्तरदायी है। हिंसा आदि अशुभ प्रवृत्तियों से अशुभ कर्मों का आस्रव और बन्ध होता है। तथा अहिंसा आदि के पालन से पाप कर्मों का निरोध रूप संवर होता है, तथा तप और क्षमादि धर्मों के पालन से कर्मों का क्षय (निर्जरा) होता है। इस दृष्टि से कर्मवाद का धर्मप्रधान समाजवाद के साथ घनिष्ट सम्बन्ध ही दृष्टिगोचर होता है। प्राचीन कालिक समाज व्यवस्था में अर्थ-काम-प्रधानता प्राचीन काल की भारतीय समाज व्यवस्था में अर्थ और काम को मुख्यता दी गई। यही कारण है कि मीमांसा दर्शन ने विविध कामनामूलक यज्ञों का विधान करके अमुक अर्थ (पदार्थ) की कामना की; देवों से याचना भी की। साथ ही उसके बाद वेदानुगामिनी स्मृतियों में काम-पुरुषार्थ की मुख्यता का स्वर ही गूंजता रहा। गृहस्थाश्रम की व्यवस्था के देतु चार वर्ण और विवाह, यज्ञोपवीत, यज्ञादि कर्म, षोडश संस्कार आदि ही पल्लवित नेते रहे। महाभारत युग में निरंकुश अर्थ और काम पर अंकुश लगाने के लिए धर्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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