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________________ १८० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) तथा संवर और निर्जरा इन विविध तत्वों को साथ-साथ लेकर प्रत्येक प्राणी के जीवन की अच्छाई-बुराई का विश्लेषण करता है। कर्मवाद में प्ररूपित कर्म का सम्बन्ध अर्थ-काम से, धर्म का धर्म-मोक्ष से इसके अतिरिक्त कर्मवाद में विवेचित कर्म का मुख्य सम्बन्ध अर्थ और काम पुरुषार्थ से तथा धर्म का मुख्य सम्बन्ध धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ से है। कर्मवाद प्रथम पुरुषार्थ युगल का कर्म संयुक्ति के रूप में द्वितीय पुरुषार्थ युगल का कर्ममुक्ति के रूप में विश्लेषण करता है। यह हुआ कर्मवाद का संक्षेप में सर्वांगीण चित्र ! प्राचीनकाल का भारतीय समाज धर्म प्रश्न होता है-प्रस्तुत कर्मवाद का वर्तमान समाजवाद के साथ कहाँ तक तालमेल है? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि समाजवाद नाम का कोई वाद प्राचीन काल में नहीं था। आधुनिक समाजवाद भारत में विदेश से आयातित है। भारतवर्ष में समाज, संघ, गण, आश्रम, वर्ण, जाति आदि अवश्य बने हुए थे। इनकी सुव्यवस्था के लिए भी वेदों से लेकर गीता और उपनिषदों में यत्र-तत्र कुछ सूत्र मिलते हैं। बाद में स्मृतियों में इनकी सुव्यवस्था के लिए विशद निरूपण किया गया है। - जैनागमों एवं जैन ग्रन्थों में ग्राम, नगर, राष्ट्र, गण, संघ आदि समाज के विविध घटकों की सुव्यवस्था के लिए इन सबके आगे 'धर्म' शब्द जोड़ा गया है। जैसे-ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्र-धर्म, गणधर्म, संघधर्म आदि।' यहाँ धर्म शब्द का आशय है-ग्राम आदि की परम्परा, मर्यादा, शिष्ट-आचार, व्यवस्था या कर्तव्यों का पालन करना ग्रामधर्म, नगरधर्म आदि हैं। ग्राम, नगर, राष्ट्र, गण, संघ आदि का मिलकर 'समाज' बनता है।यों तो भारतीय समाजशास्त्रियों ने समाज के सभी अंगों के धारण-पोषण करने एवं समाज को सुखमय बनाने हेतु मात्र 'धर्म' शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने धर्म का लक्षण भी यही किया है-“धर्मो धारयति प्रजाः, “धत्ते चैव शुभे स्थाने," "दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयीति धर्म":, तथा ‘जो धारण-पोषण करे, समाज को सुखमय करे।" समाजवाद के बदले समाज-धर्म का प्रयोग ___ धर्म के इन व्यावहारिक लक्षणों से समझा जा सकता है कि समाजवाद के बदले भारतीय मनीषियों ने “समाज-धर्म" को ही सामूहिक रूप से सुखमय जीवनयापन करने १. देखें-दसविहे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा-गामधम्मे, नगरधम्मे, रट्ठधम्मे, पासंडधम्मे, कुलधम्मे, गणधम्मे, संघधम्मे, सुयधम्मे, चरित्तधम्मे अस्थिकायधम्मे।"-स्थानांग(विवेचन) स्थान, १0 सू. १३५ पृ. ७३२ (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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