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________________ कर्मवाद और समाजवाद में कहाँ विसंगति, कहाँ संगति ? १७९ अधोलोक की एवं मध्यलोक की समस्त आत्माएँ आ जाती हैं। ये समग्र देहधारी आत्माएँ कर्म से सम्बद्ध हैं। ऊर्ध्वलोक में चारों ही जाति के देवों की, अधोलोक में नारकों की, मध्यलोक में मनुष्यों और तिर्यंचों की समस्त आत्माएँ कर्म से लिप्त हैं। यहाँ तक कि जीवन्मुक्त सयोगी केवली, तीर्थंकर आदि की आत्माएँ भी चार अघाती कर्मों से युक्त हैं। इसलिए कर्मवाद रूपी वृक्ष की शाखाएँ तीनों लोक में हैं, जिनमें देवगति, मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति और नरकगति के सभी जीवों का समावेश हो जाता है क्योंकि ये सभी कर्मावृत हैं। कर्मवाद का आत्मवाद, लोकवाद एवं क्रियावाद के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध कर्मों के आस्रव (आगमन) की मूल स्रोत मानसिक, कायिक एवं वाचिक क्रियाएँ हैं। क्रियाओं के द्वार से कर्मों का आनव (आगमन या प्रवेश) होता है। यद्यपि कर्मबन्ध का कारण साम्परायिक क्रियाएँ होती हैं, ऐपिथिक क्रिया नहीं; तथापि कर्मों का आगमन (आग्नव) तो एक बार ऐर्यापथिक से भी होता है, वह कर्म शुद्ध (अबन्धक) कर्म कहलाता __ आचारांग सूत्र में भगवान महावीर ने इन चारों वादों का स्पष्ट उल्लेख किया है'जो आत्मवादी होता है, वह क्रियावादी, कर्मवादी और लोकवादी अवश्य होता है। अतः यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा कि कर्मवाद का आत्मवाद, लोकवाद एवं क्रियावाद से घनिष्ठ सम्बन्ध उसी प्रकार का है, जिस प्रकार वृक्ष का उसकी शाखाओं एवं फलों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। कर्मवाद का सम्बन्ध : तीनों कालों, और तीनों लोकों से फिर जैन-दर्शन सम्मत कर्मवाद का सम्बन्ध भूत, भविष्य एवं वर्तमान तीनों कालों से भी है। जैन-कर्मवाद केवल वर्तमान से ही कर्म का सम्बन्ध न मानकर अतीत और अनागत काल से भी मानता है; क्योंकि वह पूर्वजन्म को भी मानता है और पुनर्जन्म को . भी। आत्मा की अमरता-शाश्वतता, परिणामी-नित्यता पर जैन कर्मवाद का अटल विश्वास है। इसके अतिरिक्त कर्मवाद का प्राणिजीवन और विशेषतः मानवजीवन के सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, नैतिक, धार्मिक सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में भी निवास एवं प्रवास है। साथ ही कर्मवाद कर्म और धर्म अर्थात्-आस्रव और बन्ध, १. देखें--से आयावाई, लोयावाई, कम्मावाई, किरियावाई। -आचारांग श्रु.१ उ.१ सू.५ २. इसके समर्थन के लिए देखें-जीवाणं विट्ठाण विवत्तिते पोग्गले पावकम्पत्ताए चिणिंसु वा चिणति वा चिणिस्सति वा, तं. एवं चिण-उवचिण-वध-उदीर-वेय तह णिज्जरा चेव ।।-स्थानांगसूत्र ठाणा, ३ उ. ४ सू. ५४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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