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________________ कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १७३ नियत नहीं है। उनमें अध्यवसायों-भावों या परिणामों की धारा की प्रबलता से परिवर्तन भी हो सकता है। दूसरे शब्दों में, किसी पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति एवं फल की तीव्रता-मन्दता में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता, ऐसी बात एकान्ततः नहीं है। अपने पुरुषार्थ-विशेष से, अध्यवसाय - विशेष की शुद्धता - अशुद्धता से उनमें समय-समय पर परिवर्तन भी हो सकता है। इसी प्रकार मन-वचन-काय की शुभ प्रवृत्ति रूप शुभ कार्य करने से बांधे गए कर्मों की स्थिति अनुभाग आदि में बाद में अशुभ कार्य करने से परिवर्तन भी हो सकता है।' इससे यह सिद्ध होता है कि जैन कर्मवाद निराशावाद, स्थिति-स्थापकतावाद या पलायनवाद नहीं है, अपितु आशा और आश्वासन का उद्घोषक, पुरुषार्थवाद एवं परिवर्तनवाद का प्रेरक एवं प्रबोधक है। कर्मवाद की स्पष्ट प्रेरणा है कि जिस प्रकार ज्वर का अत्यधिक ताप बर्फ रखने से घट जाता है। पित्त प्रकोप नीबू का रस पीने से शान्त हो जाता है। इसी प्रकार किये गए दुष्कर्मों के प्रति तीव्र पश्चात्ताप ( निन्दना), आलोचना, निन्दना, प्रायश्चित्त, गर्हणा, संवर- निर्जरा के कार्य करने से उन कर्मों की स्थिति और फलदानशक्ति और स्थिति बढ़-घट जाती है। अर्थात् पूर्ववद्ध कर्म-फल अन्य रूप में, उससे न्यूनाधिक काल में, तथा उससे तीव्र या मन्द रूप में नियत समय से पूर्व भी भोगा जा सकता है। इस सम्बन्ध में भगवतीसूत्र में एक प्रश्नोत्तर है - गौतम ने भगवान् से पूछा- भंते! क्या अन्ययूथिकों का यह अभिमत सत्य है कि सभी जीव एवंभूत वेदना (जिस प्रकार कर्म बांधा है, उसी प्रकार) भोगते हैं ? भगवान् ने कहा- "गौतम! अन्ययूथिकों का प्रस्तुत एकान्त कथन मिथ्या है। मेरा यह अभिमत है कि कितने ही जीव एवंभूत वेदना भोगते हैं और कितने ही जीव अनेवंभूत-वेदना भी भोगते हैं। " गौतम! “भगवन्! यह कैसे ?" भगवान् -"गौतम! जो जीव स्वकृत कर्मों के अनुसार ही वेदना भोगते हैं, वे एवम्भूत वेदना भोगते हैं और जो जीव स्वकृत कर्मों से अन्यथा वेदना भोगते हैं, वे अनेवम्भूत वेदना भोगते हैं।’’२ उत्कर्षण एवं अपकर्षण द्वारा जितने कर्मों की स्थिति में अन्तर पड़ता है, उन्हीं के उदयकाल में अन्तर पड़ता है, उनके अतिरिक्त अन्य जो कर्म सत्ता में पड़े हैं, उनमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता । यह अन्तर भी कोई छोटा-मोटा नहीं है, एक क्षण में करोड़ों-अरबों १. वही पृ. २९, २. भगवती १/३/३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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