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१७२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
___ स्पष्ट शब्दों में कहें तो, जिस क्रिया या प्रवृत्ति-विशेष से पहले बंधे हुए कर्म की स्थिति और रस में वृद्धि हो जाए, उसे उद्वर्तनाकरण कहते हैं। पूर्वबद्ध कर्मप्रकृति के अनुरूप पहले से अधिकाधिक प्रवृत्ति करने तथा उसमें अधिकाधिक रस लेने से ही ऐसा होता है। जैसे-कोई व्यक्ति खेत में उगे हुए किसी पौधे को पहले पर्याप्त खाद पानी नहीं देता था, किन्तु बाद में उसका ध्यान उसकी ओर गया, उसने उस पौधे को अनुकूल खाद व प्रचुर पानी दिया, जिससे पौधे की आयु एवं फलदान शक्ति बढ़ गई। इसी प्रकार कोई व्यक्ति पहले मन्द कषाय के कारण बंधी हुई स्थिति और अनुभाग को अब उससे अधिक तीव्र कषाय-वश बार-बार उसी कर्म को करता है, वह अपने तीव्र कषाय और अधिकाधिक प्रवृत्ति के कारण उस कर्म का उत्कर्षण-उदवर्तन करता है, फलतः उस कर्म की स्थिति और अनुभाग (फलदानशक्ति) बढ़ जाती है।' __ उत्कर्षण की अवस्था बताकर कर्मविज्ञान सूचित करता है कि विषय सुख आदि में राग की तथा दुःख आदि में द्वेष की वृद्धि होने से तत्सम्बन्धी कर्म प्रकृति की स्थिति और (कषाय) रस में अधिक वृद्धि हो जाती है। अतः कषायों की वृद्धि करके पापकर्मों की स्थिति एवं रस (अनुभाग) को अधिक न बढ़ाओ, न ही पुण्य-कर्म को घटाओ। अपवर्तना से पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में न्यूनीकरण'
(६) अपकर्षण-अपवर्तना-कर्मों की यह अवस्था उत्कर्षण या उद्वर्तना से विपरीत है। पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति (कालमर्यादा) एवं अनुभाग (रस) को कालान्तर में नवीन कर्मबन्ध करते समय कम कर देना, अपकर्षण या अपवर्तनाकरण है।
गोम्मटसार में इसका लक्षण यों दिया गया है-पूर्व संचित कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग को सम्यग्दर्शन आदि से क्षीण करना अपकर्षण है। जैसे-किसी व्यक्ति ने पहले किसी अशुभ कर्म का बन्ध कर लिया, किन्तु बाद में पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त, आलोचनागर्हणा, क्षमापना आदि से शुभ कार्य में प्रवृत्त हो गया। उसका प्रभाव पूर्वबद्ध कर्मों पर पड़ा। फलतः उस पूर्वबद्ध कर्म की लम्बी कालमर्यादा (स्थिति) और विपाक (फलदान) शक्ति में न्यूनता हो जाती है। इसी प्रकार पहले श्रेष्ठ कार्य करके बाद में निम्न निकृष्ट कार्य करने से पूर्वबद्ध पुण्यकर्म की स्थिति एवं अनुभाग में मन्दता आ जाती है।
जैनकर्मविज्ञानसम्मत उद्वर्तन और अपवर्तन के सम्बन्ध में प्रस्तुत विचारधारा स्पष्टतया उद्घोषित करती है कि पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति और अनुभाग एकान्ततः
१. (क) धर्म और दर्शन (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि)
(ख) जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक पृ. ८0 २. वही, पृ. ८० ३. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ४ पृ. २४
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