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________________ १७४ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) वर्षों की स्थिति की घटा-बढ़ी का होता है। स्थिति के उत्कर्षण - अपकर्षण के समान अनुभाग का भी होता है। विशेषता यह है कि स्थिति के उत्कर्षण- अपकर्षण द्वारा कर्मों के उदयकाल में अन्तर पड़ता है, जबकि अनुभाग के उत्कर्षण-अपकर्षण द्वारा उनकी फलदान शक्ति में अन्तर पड़ता है। संक्रमण : कर्मों की स्थिति आदि में परिवर्तन का सूचक (७) संक्रमण-एक प्रकार के कर्म- पुद्गलों की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्म-पुद्गलों की स्थिति आदि में परिवर्तन या परिणमन होना 'संक्रमण' कहलाता है। . संक्रमण किसी एक कर्म की मूल प्रकृति का उसी की उत्तर- प्रकृतियों में होता है, विभिन्न मूल प्रकृतियों में नहीं। इस प्रकार के परिवर्तन के लिए कुछ निश्चित मर्यादाएँ हैं, जिनका उल्लेख पूर्वनिबन्ध में हम कर चुके हैं। यह ध्यान रहे कि उत्कर्षण और अपकर्षण द्वारा कर्मों की स्थिति और अनुभाग में अन्तर पड़ जाना, तथा संक्रमण के द्वारा कर्मों की जाति में परिवर्तन हो जाना, ये तीनों कार्य सत्ता में स्थित उन्हीं कर्मों में होने सम्भव हैं, जो उदय की प्रतीक्षा में प्रसुप्त पड़े हुए हैं। उदय की सीमा में प्रविष्ट हो जाने पर उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन होना सम्भव नहीं है । फिर तो जैसा जो कुछ भी कर्म उदय की सीमा में प्रवेश पा चुका है, उसका नियत फल भोगे बिना छुटकारा नहीं। यह चेतावनी भी कर्मविज्ञान प्रत्येक मुमुक्षु साधक को देता है । ' उपशमन : कर्मों के फल देने की शक्ति को अमुक काल तक दबा देना है (८) उपशमन - कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उदय में आने के लिए उन्हें अक्षम बना देना उपशमन है। अर्थात् कर्म की वह अवस्था, जिसमें उदय अथवा उदीरणा सम्भव नहीं; किन्तु उद्वर्तन (उत्कर्षण), अपवर्तन (अपकर्षण) और संक्रमण सम्भव हो, वह उपशमन कहलाता है। जैसे - अंगारे को राख से इस प्रकार आच्छादित कर दिया जाता है, जिससे वह अपना कार्य-विशेष (जलाने का कार्य) नहीं कर पाता, उसी प्रकार उपशमन क्रिया से कर्म को इस प्रकार दबा देना, जिससे वह अपना फल न दे सके। किन्तु जैसे आवरण हटते ही अंगारे जलाने लगते हैं, वैसे ही उपशमभाव के दूर होते ही उदय में आकर कर्म १. (क) संक्रमण, उद्वर्तन और अपवर्तन के विषय में विस्तृत विवेचन देखें इसी खण्ड के पूर्व निबन्ध में । (ख) धर्म और दर्शन ( उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) पृ. ९७ (ग) कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) पृ. १७३-१७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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