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१६६ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
बनाया जाय तो कर्म उस पर हावी नहीं हो सकते। वह कर्म पर नियंत्रण कर सकता है; वह चाहे तो आत्मा को कर्मबन्धन से मुक्त रख सकता है। वह यह भान कर ले किं राग-द्वेष, कषाय आदि आवेगों या विकारों से आत्मा को बचाए तो अवश्य ही वह कर्मों को क्रमशः क्षय करता हुआ एक दिन अवश्य ही कर्मों से सर्वथा मुक्त हो सकता है। संयम और तप ये दोनों साधन उसे कर्मबन्धन से मुक्ति दिलाने में सहायक हो सकते हैं। इसलिए कर्मवाद में आत्मशक्ति के स्वतंत्रतापूर्वक उपयोग का या सीमित इच्छास्वातंत्र्य का स्थान अवश्य है। "
इच्छा - स्वातंत्र्य का अर्थ स्वेच्छाचारिता नहीं
इच्छा - स्वातंत्र्य का कोई यह अर्थ न करे कि 'जो चाहें सो करें ।' ऐसी स्वतंत्रता अथवा स्वच्छन्दता को कर्मवाद में कोई स्थान नहीं है। प्राणी अपनी शक्ति एवं मर्यादा तथा 'बाह्य परिस्थिति की या अपने बलाबल के विचार की उपेक्षा करके कोई कार्य नहीं कर सकता। वह परिस्थितियों का दास नहीं, किन्तु अपनी आत्मशक्ति को प्रकट करे तो स्वामी भी बन सकता है।
कर्म कितना ही शक्तिशाली हो, अन्त में आत्मा ही विजयी होता है
वस्तुतः कर्म कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, वह सार्वभौम शक्ति सम्पन्न नहीं है। लोगों में यह भ्रान्ति है कि कर्म सर्वशक्तिसम्पन्न है, सब कुछ कर्म से ही होता है, या हो सकता है। परन्तु यह मूढ़तापूर्ण भ्रान्ति है । यदि सब कुछ कर्म से ही होता तो मनुष्य संवर और निर्जरा की साधना क्यों करता ? उसका मोक्ष कदापि न होता। कर्मवाद यह स्पष्ट सिद्धान्त प्रतिध्वनित करता है कि एक ओर कर्म की सेना है - आम्रव और बन्ध की बटालियन तो दूसरी ओर धर्म की सेना है-संवर, निर्जरा और मोक्ष की बटालियन । इन दोनों का संघर्ष, युद्ध और प्रतिद्वन्द्विता है। इसमें तुम्हें आत्मा को जिताना है, उसका गौरव बढ़ाना है तो संवर, निर्जरा और मोक्षरूप धर्म को विजयी बनाओ।
कर्म आत्मा पर एकाधिकार नहीं जमा सकता
कर्मविज्ञान इसी तथ्य की प्रेरणा करता है कि यह निश्चित समझ लो कि कर्म की सार्वभौम सत्ता नहीं है। कर्म के पास भौतिक शक्ति है तो आत्मा के पास अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तचारित्र, असीम आनन्द, असीम बलवीर्य की आध्यात्मिक शक्तियाँ हैं। अगर सोया हुआ आत्मकेसरी जाग जाए और अपनी शक्तियों को भलीभाँति जानकर पराक्रम करे तो कर्म उसके आगे एक क्षण भी टिक नहीं सकते। कितना ही प्रगाढ़ घना
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२.
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ४ ( डॉ. मोहनलाल मेहता) से
वही, भा. ४ से
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