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कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १६७ अन्धकार हो, प्रकाश की एक किरण पड़ते ही वह समाप्त हो जाता है। जब आत्मा अपने चैतन्यस्वभाव को उबुद्ध कर लेता है, तब कर्म की सत्ता डगमगा जाती है। चैतन्य की जागृति नहीं होती, तभी तक कर्म टिक पाता है। चैतन्य का जागरण होते ही कर्म का एकछत्र-सा शासन समाप्त हो जाता है। इसलिए कर्म आत्मा पर एकाधिकार नहीं जमा
सकता।
ज्ञानादि चतुष्टय रूप मोक्षमार्ग की साधना से कर्मों के संचित विशाल पुंज को तोड़
सकता है
ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की शुद्ध साधना करने वाला साधक चाहे गृहस्थ हो या साधु, कर्मविज्ञान के इन गूढ़तम रहस्यों को जाने और उससे मिलने वाले आध्यात्मिक बोध के प्रकाश को ग्रहण करे और अपनी आध्यात्मिक चेतना पूर्णतया जागृत करे तो करोड़ों जन्मों के संचित कर्मों को तप, संयम के द्वारा बहुत शीघ्र ही क्षय कर डालता है।' और आत्मा को परिशुद्ध परमात्मा बना लेता है। व्यक्ति की आध्यात्मिक साधना सशक्त हो तो कर्मों का चाहे जितना विशाल पुंज हो, टूटने लग जाता है। अपने आन्तरिक वैभव को जानो, देखो
वर्तमान युग का मानव बाहर के वैभव को देखता है, इसलिए बाहर की शरीरादि सब कर्मोपाधिक वस्तुएँ महत्त्वपूर्ण दिखती हैं, अगर वह अपने अन्दर झांके तो उसे अपने असीम ज्ञानादि आध्यात्मिक वैभव का पता लगे। पर आज वह इसी कहावत को चरितार्थ कर रहा है
कस्तूरी मृग नाभि बसत है, वन वन फिरत उदासी। आज वह बाहर में आनन्द, शान्ति, शक्ति, ज्ञान आदि को ढूंढ़ता है। कर्मविज्ञान कर्म की शक्ति-अशक्ति की सीमा का स्पष्ट निर्देशक
जैन कर्मविज्ञान कर्म की शक्ति-अशक्ति की सीमा भी बताता है। चौदह गुणस्थानक्रम के द्वारा वह कर्म की प्रबल शक्ति से लेकर शक्तिक्षीणता तक की सीमा बताता है। अतः यह निश्चित समझ लो कि कर्म आते हैं, बंधते हैं, पर कब, किसको, कब तक? इसकी चर्चा भी कर्मविज्ञान में है। कर्म चाहे कितना ही प्रबल हो, अपनी सीमा में ही फल देता है, उस पर भी प्रतिबन्ध हैं। मुक्तभाव से वह भी फल नहीं देता। प्रत्येक कर्म का विपाक (फल भोग) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सीमा में होता है। कर्म का उदय विद्यमान होते हुए
१. भवकोडि संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ।"
-उत्तराध्ययन ३०/६
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