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________________ कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १६५ स्वयं-संचालित यंत्र की भांति स्वतः संचालित होती रहेंगी। ऐसी स्थिति में प्राणी का प्रत्येक कार्य कर्माधीन मानना होगा। ऐसा कर्मवाद एक प्रकार का नियतिवाद या अनिवार्यतावाद बन जाएगा। फिर आत्मस्वातंत्र्य को, या आत्मशक्ति को, स्वेच्छापूर्वक उपयोग को अथवा आत्मा के इच्छा-स्वातंत्र्य को जीवन में कोई स्थान नहीं रहेगा।' प्राणी कर्म करने में भी स्वतंत्र, फल भोगने में भी कथंचित् स्वतंत्र किन्तु जैनकर्म विज्ञान इस तथ्य से सर्वथा इन्कार करता है। यह सामान्य नियम है कि प्राणी कर्म करने यानी कर्मबन्ध करने में स्वतंत्र है, किन्तु उसका फल भोगने में परतंत्र है। समस्त कर्मवादियों की यह मान्यता है कि प्राणी को अपने कृतकर्म का फल किसी न किसी रूप में अवश्य भोगना पड़ता है, किन्तु नवीन कर्म का उपार्जन करने में वह किसी हद तक स्वतंत्र है। वह पूर्वकृत कर्म का फल भोगने में परतंत्र है, इसका यह अर्थ नहीं कि जिस प्रकार जिस (कषाय) रसानुभाग की तीव्रता या मन्दता से कर्म बांधा है, उसे उसका फल उसी रूप में भोगना पड़े। वह चाहे तो पूर्वकृत कर्म की सजातीय उत्तरप्रकृतियों में परिवर्तन या अदलबदल भी कर सकता है, चाहे तो अमुक सीमा तक स्थिति (पूर्वकृत कर्मों के फल भोगने की कालसीमा) को अल्पकालीन या दीर्घकालीन कर सकता है, रसानुभाग में भी तीव्रता या मन्दता कर सकता है। वह चाहे तो अमुक नियमानुसार संचित कर्म के उदय में अपने समय से पूर्व ही उदीरणा करके उसका फल भोग कर शीघ्र ही क्षीण कर सकता है। आत्मा की आन्तरिक शक्ति एवं बाह्य परिस्थिति के अनुरूप प्राणी नये कर्मों का उपार्जन भी रोक (संवर कर) सकता है। पुराने बंधे हुए कर्मों को आत्मा अपने तप, त्याग, महाव्रत आदि द्वारा शीघ्र ही क्षय (निर्जरा) कर सकता है। इसका विशेष विस्तृत निरूपण हम कर्मविज्ञान के तृतीय खण्ड में ‘कर्म का परतंत्रीकारक रूप' नामक निबन्ध में कर चुके हैं। कर्मवाद आत्मशक्तियों का स्वतंत्रतापूर्वक उपयोग करने का अवसर देता है निष्कर्ष यह है कि कर्मचक्र के अखण्ड प्रवाह से यह नहीं मानना चाहिए कि प्रत्येक आत्मा के यह क्रम शाश्वत ही रहेगा। आत्मा अनन्त शक्तिमान है, अनन्तज्ञान-दर्शन और आनन्द से परिपूर्ण है। परन्तु वर्तमान में उसकी अनन्तशक्ति, अनन्त ज्ञानादि सुषुप्त हैं, कों से आवृत हैं। इसलिए आज आत्मा निर्बल और कर्म सबल प्रतीत होता है। मगर वास्तव में आत्मा को ज्ञानादि चतुष्टय की साधना से उर्जस्वी, वर्चस्वी और तेजस्वी १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४ (डॉ. मोहनलाल मेहता) से पृ. ६-७ २. देखें-कर्म विज्ञान प्रथम भाग तृतीय खण्ड में 'कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप' पृ. ४०६ से ४३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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