________________
१६२ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
अमिट लिपि समझ कर भोगता रहता है, दीनता- दरिद्रता भी चुपचाप भोगता रहता है। भयंकर रोगग्रस्त यही सोचता है कि भाग्य में यह रोग लिखा हुआ है तो इसे कौन मिटा सकता है? इसी प्रकार दरिद्रता को भी भाग्य का वरदान समझकर भोगा जाता है। हर कार्य में ऐसा व्यक्ति भाग्य और कर्म की दुहाई देता है और कष्ट भोगता जाता है। भाग्य की भाषा में सोचने की उसकी आदत ही बन गई है। समस्याओं को विवेकपूर्वक सुलझाने के बजाय भाग्य भरोसे छोड़ देता है।
जैनकर्मविज्ञान स्वावलम्बी पुरुषार्थ के अनुकूल है
किन्तु जो कर्म में लिखा है, वही होगा, यह मानकर अकर्मण्य एवं पुरुषार्थहीन होकर बैठ जाना, जैन कर्मविज्ञान के सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। जैनकर्मविज्ञान प्ररूपक तीर्थंकरों, ज्ञानी महापुरुषों एवं आचार्यों ने भाग्यवाद, ईश्वरकृपावाद या. पराश्रयवाद आदि के भरोसे न बैठकर स्वयं सत्पुरुषार्थ - सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप, क्षमा आदि दशविध उत्तम धर्म, महाव्रत एवं संवर, निर्जरा आदि मोक्ष पथ पर चलने का पुरुषार्थ करके सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष प्राप्त किया। जैनकर्मविज्ञान स्वावलम्बी पुरुषार्थ को अत्यधिक महत्व देता है।
भगवान् महावीर पर साधनाकाल में घोर उपसर्ग (कष्ट) आने लगे, तब इन्द्र ने करबद्ध होकर प्रार्थना की- "भगवन्! आप पर घोर कष्ट आते हैं, आने वाले हैं, मैं आपकी सेवा में रहकर इन कष्टों से आपकी रक्षा करना चाहता हूँ, आप आज्ञा दें।" इस पर प्रभु महावीर ने कहा- "इन्द्र ! यह न तो कभी हुआ है, न होगा कि किसी दूसरे के सहारे से कोई साधक अपने साध्य को प्राप्त करे। जिनेन्द्र स्वकीय पुरुषार्थ- बल के आधार पर परम (परमात्म) पद को प्राप्त करते हैं।””
कर्मनिर्जरा-सिद्धान्त पुरुषार्थप्रेरक है
कर्मविज्ञान-प्ररूपित कर्मनिर्जरा (कर्म का अंशतः क्षय) का सिद्धान्त भी व्यक्ति के स्व-सत्पुरुषार्थ का प्रेरक है। कतिपय कर्म फल देकर आत्मा से छूट जाते हैं, जबकि कई कर्म सत्पुरुषार्थ द्वारा भी छुड़ाये जा सकते हैं। कर्म का फल देकर स्वयं छूट जाना अकामनिर्जरा है, जबकि व्यक्ति के स्व-पुरुषार्थ द्वारा कर्मों का छुड़ाया जाना सकाम निर्जरा है। सकाम निर्जरा उद्देश्यपूर्वक, स्वेच्छा से, किसी भी कामना - वासना आदि दोषों से रहित होकर बाह्य आभ्यन्तर तप, परीषह - जय, चारित्र - पालन, सम्यग्दर्शन- ज्ञान की साधना, क्षमादि धर्मों के पालन द्वारा आत्मशुद्धि के हेतु की जाती है।
१.
२.
(क) इंदा न एवं भूयं न भव्वं, न भविस्सइ, जं अरिहंता परासएण अरहत्तं पार्वति ।
- महावीरचरियं
(ख) स्ववीर्येणैव गच्छन्ति, जिनेन्द्राः परमं पदम् ॥
अम विज्ञान प्रवेशिका (गोपीचंद धाड़ीवाल) से प्र. ११
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org