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कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १६३ फर्मवाद सिद्धान्त निराशाबोधक नहीं, जीवन-परिवर्तन बोधक है
सच पूछे तो-कर्मवाद-सिद्धान्त निराशा का बोधक नहीं, अपितु स्व-जीवनपरिवर्तन का बोधक है। जिस प्रकार एक जगह पड़ा हुआ पानी गंदा हो जाता है, वह सड़ता रहता है, उसमें कीड़े कुलबुलाने लगते हैं, इसी प्रकार समाज में, परिवार में, या व्यक्तिगत जीवन में स्थिति-स्थापकता, रूढ़िवादिता या विकासघातक परम्पराओं से चिपटे रहना भी कर्मवाद के रहस्य को नहीं समझना है। कर्मवाद का प्रेरणासूत्र यह है कि हेज, मृतभोज, धर्म को प्रतिष्ठा न देकर धन को प्रतिष्ठा देना, संयमशीलता को प्रतिष्ठा न देकर सत्ता को प्रतिष्ठा देना, इत्यादि कुरूढ़ियों एवं कुप्रथाओं के पालन से समाज में विषमता, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, अन्याय-अनीति एवं पापाचरण से धनवृद्धि, भय-प्रलोभन के आधार पर सत्ता-प्राप्ति, ठगी, वंचना, बेईमानी आदि पापकर्मों का बन्ध होता है। अतः इन कुप्रथाओं एवं कुरूढ़ियों को इस ढंग से बदलना चाहिए जिससे समाज में समता, मानवता, सत्यता, निर्भयता, न्याय-नीति आदि बढ़े, जिससे व्यक्ति के जीवन में संवर-निर्जरा प्रचलित हो, अथवा कम से कम पुण्य (शुभ कर्म) का भी संचय हो। जिससे पापाचरण के बदले पुण्याचरण या संयमाचरण या तपश्चरण की ओर मानवजाति बढ़े। सच्चा कर्मवादी कुरूढ़िवादी नहीं होगा। पच्या कर्मवादी : प्रत्येक प्राणी में शुद्ध चेतना के दर्शन करता है
वह प्रत्येक व्यक्ति में शुद्ध आत्मा को देखता है, कर्म-प्रभावित आत्मा के दर्शन करने के बदले उसमें प्रत्येक प्राणी में शुद्ध आत्मा के दर्शन की चेतना-ज्ञानचेतना जग जाती है, ऐसी स्थिति में वह कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से दूर हट जाता है। यही कर्मवाद के मर्मत होने की कसौटी है। इस कसौटी में खरा उतरने पर व्यक्ति कपाय, रागद्वेष, मोह, धाम आदि विकारों (विभावों) से शीघ्र ही छुटकारा पा जाता है, या ये अत्यन्त मन्द हो जाते हैं। फिर वह अनेक पाप कर्मबन्धन बुराइयों-सावद्य प्रवृत्तियों से स्वयं को बचा लेता
जीव के साथ अनादिकाल से लगा कर्मचक्र
कर्मवाद के विषय में एक एकांगी धारणा यह भी बनी हुई है कि जीव अनादिकाल से कर्मों की श्रृंखला में जकड़ा हुआ है। पुराने कुछ कर्मों को भोग कर वह नये अनेक कर्मों को बांध लेता है। यह सिलसिला अनादिकाल से चला आ रहा है। जिस प्रकार रेहट की घड़िया में पानी भरकर आता है, खाली होता है और फिर भर जाता है, इसी प्रकार प्रत्येक जीव के साथ कर्मों की घटमाल चलती रहती है। पुराने कर्मों का भण्डार खाली नहीं होता, इतने में तो नये कर्मों की भर्ती होती जाती है।
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