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________________ कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १६१ अपनी आदतों, स्वभाव, प्रकृति एवं विचार को बदल सकता है, आर्त-रौद्र ध्यान को धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में परिवर्तित कर सकता है, अशुभ लेश्या को शुभ लेश्या में परिणत कर सकता है। अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल सकता है। जैनकर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने ही दार्शनिक जगत् में एक नई बात कही कि कर्मों को अदल-बदल किया जा सकता है। अशुभ को शुभ में पलटा जा सकता है। पाप को पुण्य में और पुण्य को पाप में बदला जा सकता है।' उदीरणा का पुरुषार्थ : कर्म को उदय में लाकर शीघ्र भोग लेने का उपाय अन्य दार्शनिकों ने कहा कि कर्मों का जत्था इतना भारी-भरकम हो जाता है कि उनन्त काल तक उन्हें भोगते-भोगते आदमी थक जाएगा। परन्तु कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने कहा-ऐसा एकान्त नहीं है। कर्म कब तक उदय में आएगा? अथवा कर्मों का इतना विशाल भण्डार कब खाली होगा? क्या अनन्तकाल तक कर्मों के क्षय की प्रतीक्षा करनी होगी? ये शंकाएँ कर्मविज्ञान ने निर्मूल कर दी हैं। यदि पूर्वबद्ध-सत्तापतित (संचित) कर्मों को उदय में आने से पहले ही भोग कर क्षीण करना हो तो उदीरणा का पुरुषार्थ करो। बंधे हुए कर्मों को शीघ्र ही किसी निमित्त से उदय में लाओ और समभावी (राग-द्वेष रहित) होकर भोगते जाओ, और तोड़ते जाओ। विपाक की प्रतीक्षा मत करो। निधत्त और निकाचित न बंधे हों तो उन कर्मों को उदीरणा के पुरुषार्थ से शीघ्र ही क्षीण किया जा सकता है। किन्तु कर्मवाद निर्दिष्ट संवर और निर्जरा के इन विभिन्न प्रयोगात्मक उज्ज्वल पथ पर चलने का पुरुषार्थ न करके व्यक्ति अशुभ कर्म के स्रोत-पापानव और पापबन्ध के पथ पर सरपट दौड़ लगाता है। स्वयं का दोष : कर्म के सिर पर : कर्मवाद की भ्रान्त धारणा . जीवन में जब भी कोई अघटित घटना हो जाती है तो कर्मवाद की भ्रान्ति के शिकार व्यक्ति कहने लगते हैं-“हम क्या करते, कर्म में ऐसा ही लिखा था।" ऐसे मनुष्य अपनी पुरुषार्थहीनता एवं अकर्मण्यता को दबाने-छिपाने के लिए सारे ही गुण-दोषों का टोकरा धर्म के सिर पर डाल देते हैं। भला-बुरा कुछ भी हो, ऐसी मिथ्या धारणा से ग्रस्त व्यक्ति फर्मपर ही सारा दायित्व डाल देता है। मनुष्य स्वयं बच जाता है, कर्म को दोषी ठहरा देता भारत के जनमानस में कर्मवाद के साथ-साथ भाग्यवाद की इतनी भ्रान्त धारणाएँ या जमा चुकी हैं कि मनुष्य इन भ्रान्त धारणाओं के चक्कर में पड़कर भयंकर रोग की पौड़ा भी भुगतता है, संकट और कष्टों का सामना करने की अपेक्षा उन्हें भाग्य की १. कर्मवाद पृ. १०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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