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________________ कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १५७ कर्म सिद्धान्त से अनभिज्ञ व्यक्ति की दुर्दशा इसके विपरीत जो व्यक्ति कर्म सिद्धान्त से अपरिज्ञात होता है, वह यहाँ भी और परलोक में भी दिशाओं और अनुदिशाओं में अपने-अपने कर्मों के अनुसार भटकता रहता है। वह अनेक प्रकार की योनियों को प्राप्त होता है तथा विभिन्न प्रकार के स्पर्शो (सुख-दुःख के आघातों) का अनुभव करता है।”” यह कर्मवाद को मौखिक रूप से स्वीकारने वाले किन्तु शुद्ध अबन्धक कर्म (सत्क्रिया) से अथवा सत्कर्म से पलायन करने वाले व्यक्ति की दशा का चित्रण है। कर्मसिद्धान्त से अनभिज्ञ व्यक्तियों द्वारा पराजयवाद का आश्रय कर्मवाद के सिद्धान्त से अनभिज्ञ व्यक्ति साधना और व्यवहार के क्षेत्र में प्रायः यह कह बैठते हैं कि “हम यह कार्य नहीं कर सकते क्योंकि कर्म का ऐसा ही योग है। जब शुभ कर्म का उदय होगा, तभी हम कुछ कर सकेंगे।" वे कर्मवाद के विषय में इस प्रकार की भ्रान्ति के शिकार बने हुए हैं कि "कर्म ही सब कुछ कराता है। संसार में उसी की सार्वभौम सत्ता है। हम तो कर्म के हाथ की कठपुतली हैं, वह जैसे नचाएगा, वैसे ही नाचेंगे।” कई दफा कर्मवाद के सिद्धान्त से अनभिज्ञ व्यक्ति किसी अच्छे कार्म को करने का पुरुषार्थ नहीं करता तब अपनी विपन्न दशा को छिपाने के लिए कहता है । "मैं क्या करता, कर्म ही ऐसा था? कर्म के कारण ही मेरे से यह कार्य हुआ।” गलत कार्य या पापकर्म किया मनुष्य ने और दोष मढ़ दिया कर्म के सिर पर । क्या ऐसा करने से व्यक्ति कर्मफल से बच सकता है? यह पराजयवाद है। कर्म का बहाना बना कर मनुष्य अपनी कमजोरियाँ छिपाता है। वह कर्म के आगे अपनी हार मानता है । पर यह नहीं सोचता कि ऐसा करने से क्या वह कर्म से या कर्मफल से बच जाएगा? मनुष्य जब तक अष्टकर्मों से सर्वथा मुक्त-सिद्ध-बुद्ध-निराकारअशरीरी परमात्मा नहीं बन जाता, तब तक उसे कुछ न कुछ प्रवृत्ति या क्रिया (कर्म) करनी ही पड़ती है। यह अवश्य है कि वीतराग पुरुष के द्वारा जो भी कर्म (क्रिया) किया जाता है, उससे आत्मगुणघातक कर्म बन्ध नहीं होता, न ही अन्य कर्म का बन्ध होता है। छद्मस्थ साधक जो यतनाशील एवं सर्वभूतात्मभूत समदर्शी है, उसके भी अशुभ (पाप) कर्म का बन्ध नहीं होता। अतः जो कर्म से डर-डर कर आवश्यक या शुभ क्रिया या प्रवृत्ति करने से कतराता है, उसके लिए सूत्रकृतांग चूर्णि में कहा गया है -- “कर्म से १. 'अपरिण्णाय कम्मे खलु अयं पुरिसे, जो इमाओ दिसाओ वा अनुदिसाओ वा अणुसंचरइ ॥” - आचारांग १/१/८ २. कर्मवाद प्र. १०२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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