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________________ १५६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) करने लगा। कुछ लोगों ने अन्याय, अनीति और अधर्म के रास्ते पर चल कर सुखी होने का दिवास्वप्न देखा, हाथ-पैर भी मारे। किन्तु न तो उनके पास पूर्वजन्मकृत पुण्यराशि संचित थी, न ही इस जन्म में उन्होंने शुभकर्म उपार्जित किये, फलतः उन्हें निराशा ही हाथ लगी। कुछ लोगों ने चोरी, डकैती, तस्करी, ठगी, अनीति, अन्याय, शोषण आदि करके कुछ धन एकत्र किया। किन्तु वह अन्यायोपार्जित धन उनके लिए सुख-शान्ति का कारण न बना। फलतः परिवार में फूट, कलह, वैमनस्य तथा चिन्ता, बीमारी आदि दुःख और अशान्ति का दौर चलने लगा। कर्मवाद के सिद्धान्त से लाभ उठाने वालों का चिन्तन एवं क्षमता “अच्छे कर्मों के अच्छे फल होते हैं और बुरे कर्मों के बुरे फल;" कर्मवाद का यह सूत्र जिसके हृदय में स्पष्टतः अंकित हो जाता है, अथवा जो कर्मवाद के प्रकाश में शुभ-अशुभ और शुद्ध मार्ग को पहचान लेता है तथा उसके प्रकाश को हृदय से स्वीकार कर लेता है, वह अपने जीवन में श्रद्धापूर्वक यह दृढ़ निश्चय कर लेता है कि अशुभकर्म का फल अशुभ ही मिलता है चाहे वह आज मिले, महीने, वर्ष या वर्षों बाद मिले। इसलिए मुझे अशुभ एवं अनिष्ट कर्मों से सदैव बचना चाहिए। __ ऐसा व्यक्ति कर्मवाद के सिद्धान्त पर अटल विश्वास रखता है, और सदैव यह चिन्तन करता रहता है-मैं कौन हूँ? मैं किस दिशा या विदिशा से यहाँ (मनुष्य लोक में) आया हूँ ? यहाँ से मर कर परलोक में क्या होऊंगा?' मैंने कोई न कोई शुभकर्म राशि संचित की थी, उसी के कारण मुझे मनुष्य जन्म मिला है। अब मैं ऐसा कौन-सा शुभकर्म करूँ या कर्मक्षय करने का पुरुषार्थ करूं, जिससे मुझे इस जन्म में भी सुख-शान्ति मिले और आगामी जन्म में भी या तो शुभगति प्राप्त हो अथवा कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर आत्मा से परमात्मा बनूं।" आचारांग सूत्र के अनुसार वह कर्मवादी व्यक्ति यह सोचता है-“पूर्वजन्म या जन्मों में मैंने अच्छे कर्म (सत्क्रियाएँ) किये हैं, इस जन्म में भी करूंगा और दूसरों से सक्रियाएँ कराऊँगा तथा जो सक्रियाएँ करने वाला है उसका समर्थक-अनुमोदक बंनूगा।" ऐसे कर्मवादनिष्ठ व्यक्ति पूर्वबद्ध कर्मों को क्षय करने के लिए, और नये अशुभ कर्मों को रोकने के लिए सतत पुरुषार्थ करते हैं। शुभकर्मों का फल शीघ्र न मिले, अथवा शुभकर्म करते हुए भी पूर्वबद्ध अशुभकर्म के उदय के कारण कभी कष्ट, विपत्ति, संकट या दुःख आ पड़े तो भी सत्पुरुषार्थ में शिथिलता नहीं लाते। ऐसे लोग कर्मवादरूपी प्रकाशस्तम्भ के प्रकाश से पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं। १. के अहं आसी? के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि? -आचारांग सूत्र १/१/२ २. 'अकरिस्सं चहं, कारवेसुं चहं, कारओ वावि समण्णुणो भविस्सामि।" -वही, १/१/६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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