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कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १५५ अज्ञान, मोह और भ्रम के कारण कर्मवाद रूपी प्रकाशस्तम्भ को देखते तक नहीं, इस प्रकाशस्तम्भ के प्रकाश में सही और गलत मार्ग को देखते नहीं, काम-क्रोधादि चट्टानों से टकरा जाने की परवाह नहीं करते तथा इस संसार-समुद्र को अथाह कर्म-जल से परिपूर्ण देख कर हताश, निराश और उदास हो जाते हैं और कर्मवादरूप प्रकाशस्तम्भ के प्रकाश को भूल कर वे अन्धकारमय मार्ग में ही अपनी जीवननैया को जैसे-तैसे खेते रहते हैं। अपने मन में वे इसी भ्रान्ति को पाले रहते हैं कि चारों ओर कर्म-जल ही कर्म-जल है। इसी के भरोसे अपनी मात्रा करनी है, ये चाहे हमारी जीवन नौका को तारे या डुबाये।
कर्मरूपी जल का प्रवाह जिधर उनकी नौका को ले चलता है, उधर ही उनकी जीवन-नौका चलती रहती है। वे कर्मवाद के आशास्पद विश्वस्त प्रकाशमय मार्ग की दिशा में अपनी जीवन-नौका को चलाने का पुरुषार्थ नहीं करते। संसार-समुद्र में लबालब भरे हुए कर्म-जल के थपेड़ों से आहत होकर उनकी जीवननौका जर्जर, शिथिल और सछिद्र भी बन जाती है, उसके डूबने का खतरा बना रहता है। फिर भी वे कर्मवाद रूप प्रकाशस्तम्भ के यथार्थ उद्देश्य को न समझकर अपने पुरुषार्थ को उत्तेजित नहीं करते
और हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहने की वृत्ति को नहीं छोड़ते। चूंकि कर्मवाद उन्हें यथार्थ मार्ग पर चलने का प्रकाश देता है, किन्तु उनके मन-मस्तिष्क उस प्रकाश को तथा प्रकाशित यथार्थ मार्ग पर जीवन-नौका को चलाने के पुरुषार्थ को बहुत ही कष्टदायक एवं पीड़ाकारक समझते हैं। यही कारण है कि अधिकांश लोगों के लिए कर्मवादरूप प्रकाशस्तम्भ आशास्पद एवं विश्वसनीय होने के बदले निराशाजनक एवं अविश्वसनीय बन हुआ है। कर्मवाद सिद्धान्त से कतराने वाले भ्रान्तिमय मानव
वास्तव में कर्मवाद-सिद्धान्तरूपी प्रकाशस्तम्भ अन्याय, अनीति, हिंसादि पाप कर्म, जुआ, चोरी, ठगी, मांसाहार, मद्यपान, शिकार, हत्या, व्यभिचार आदि बुराइयों की चट्टानों से बचने के लिए तथा नैतिक जीवन जीने तथा आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए था। किन्तु कर्मवाद का अर्थ और उद्देश्य समझने में मनुष्य ने बहुत बड़ी भूल की। वह सोचने लगा कि “जो बुरे कर्म करते हैं वे फलते-फूलते हैं, सुखी एवं सम्पन्न दिखाई देते हैं और जो अच्छे कर्म करने वाले हैं, वे अभावपीड़ित हैं, दुःखी हैं, फटेहाल हैं, उन्हें सुख से अपना जीवनयापन करना भी दूभर हो रहा है। इसलिए अच्छा कर्म करने से क्या लाभ? बुरे कर्मों पर सभी चल रहे हैं, सभी तो दुष्कर्मों के बल पर सुखपूर्वक जी रहे हैं, तो मैं अकेला ही पीछे क्यों रहूँ ?"
इस प्रकार कर्मवाद के सिद्धान्त से निराश, हताश होकर कर्मबन्ध की परवाह न करके वह कृत्रिम एवं क्षणिक सुखसम्पन्नता के लिए येन-केन-प्रकारेण जीवन यापन
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