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________________ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) अतः कर्मविज्ञान जीवन परिवर्तन करने का विज्ञान है । कर्मविज्ञान का सन्देश है - मनुष्य अपनी जिस निम्न भूमिका में है, उससे ऊपर उठे। अगर यह मध्यम भूमिका में है, तो उससे आगे बढ़े और उच्च भूमिका पर आरूढ़ हो । भगवान् महावीर ने समस्त संसारी जीवों, विशेषतः जिज्ञासु मानवों से कहा- “अगणित अशुद्ध कर्मों का क्षय करके कदाचित् क्रमशः आत्मा की शुद्धि होने से दुर्लभतर मनुष्य जन्म मिला है, किन्तु इसके पश्चात् धर्मश्रवण, श्रद्धा, और संयम में पराक्रम दुर्लभतम घाटियाँ हैं। इन्हें पार कर लेने पर मनुष्य अपने कर्मों का क्षय करने का पुरुषार्थ व्रत, नियम तथा बाह्याभ्यन्तर तप का आचरण करके करे । कर्मों के कारणों-राग-द्वेष, मोह, कषाय आदि को भलीभांति जानकर उनको आत्मा से पृथक् करे। ऐसे कर्मक्षय का पुरुषार्थ करते रहने से भी अल्पकर्मा व्यक्ति उच्च देवलोक प्राप्त कर लेता है। और जो मुनि बनकर संवृत है - संवर धर्म में रत है, उसकी भी दो गतियाँ हैं- या तो समस्त दुःखों (कर्मों) का अन्त करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बन जाते हैं, अथवा अल्पकर्मा महर्द्धिक देव बनते हैं"।" १५२ इसके विपरीत जो व्यक्ति उद्धत, एवं स्वच्छन्द होकर प्रत्यक्षदर्शियों की प्रेरणानुसार मनमाना आचरण करता है, पापकर्मों का त्याग नहीं करता है, वह नरकगामी होता है। कोई भी बन्धु-बान्धव, माता-पिता आदि स्वजन उसे कर्मों के दुःखद फल से बचा नहीं सकते। कर्मविज्ञान के सन्देश की जो अवहेलना करता है, स्वच्छन्दाचरण करता है, वह अज्ञ मानव हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि पापों को छोड़ता नहीं। वह मन, वचन, काया से मत्त और उच्छृंखल होकर कषायों और विषयासक्ति में तथा सुरा-मांससेवन में रचा- पचा रहता है, वह अन्तिम समय में घोर पश्चात्ताप करता है, सोचता है - मैंने नरक स्थानों की बात सुनी थी कि क्रूर कर्म करने वाले दुःशील व्यक्ति नरक में जाते हैं, जहाँ प्रगाढ़ वेदना होती है। अथवा अपने कर्मानुसार वह देवलोक में भी जाता है, तो नीची जाति का किल्विषी देव बनता है, फिर वह पश्चात्ताप करता है। कर्मविज्ञान के शरीर, इन्द्रिय, गति, योग, वेद आदि की गतिविधि के साथ कुछ नियत नियम हैं। उन नियमों पर से प्रत्येक प्राणी के जीवन का भूत, वर्तमान और भविष्य भी जाना जा सकता है। यद्यपि भविष्य का ज्ञान तो कर्मविज्ञान में पारंगत श्रुतकेवलियों या केवलज्ञानियों अथवा यत्किंचित् रूप में अवधिज्ञान - मनः पर्यवज्ञान के धारकों को होता है । परन्तु कर्मों के कारण गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि में होने वाले परिवर्तनों को देखकर अनुमान करके अथवा विशिष्ट ज्ञान से साधारण ज्ञानी को भी उसके 9. २. (क) देखें - उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३ गा. ७ से ११ तक। (ख) अ. ५गा. २५ (क) उत्तराध्ययन अ. ४/२, (ख) अ. ५ / ९, १०, १२, १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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