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________________ जैन कर्म-विज्ञान : जीवन-परिवर्तन का विज्ञान १५१ आत्मबोध एवं कर्मविज्ञान का बोध नहीं मिलेगा। इस प्रकार समुद्रपाल स्वयं सम्बद्ध हो गया, परम संवेग को प्राप्त हुआ। समुद्रपाल ने माता-पिता और सभी परिवार, धन-धान्य आदि को छोड़कर वैभवशाली जीवन को संयमी जीवन में परिवर्तित कर लिया। चित्त मुनि के जीव (संयमी मुनि) ने भी संभूति के जीव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को कर्मविज्ञान के सन्दर्भ में प्रेरणा दी थी-“राजन्! तुमने पूर्वजन्म में भोगों की वांछारूप निदान से कर्म उपार्जित किये थे, उन्हीं के फलस्वरूप आज हम दोनों एक दूसरे से बिछुड़ गए। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। अब यदि तुम इन भोगों को छोड़कर साधु बनकर अबन्धक कर्म करो तो ठीक हो सकते हो। यदि भोगों को छोड़ने में भी असमर्थ हो तो कम सेकम आर्य (शुभ) कर्म तो करो, जिससे तुम्हारा भावी जीवन शुभ गति और शुभ योनि प्राप्त करने में समर्थ हो सके।” परन्तु इस पर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने अपने आप में बिल्कुल चिन्तन नहीं किया, अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने का कोई विचार नहीं किया। फलतः वह नरक का मेहमान बना। कर्मविज्ञान-मर्मज्ञ भगवान् महावीर ने अपने पट्टशिष्य गणधर गौतम को वर्तमान-प्रशस्तरागमय जीवन बदलने की दृष्टि से कर्मविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में अप्रमत्त होकर साधना करने के लिए कहा था। संक्षेप में उसका भावार्थ यह है कि शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप यह.जीव प्रमाद रत होकर परिभ्रमण करता है, तुम भी स्वकर्मवश एकेन्द्रिय में पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों में वहाँ की उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त करके रहे हो, फिर किसी कर्मवश क्रमशः द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय प्राणियों में भी रह आए हो, पंचेन्द्रियों में भी देवों और नारकों में भी तुम्हारा जीव रहा है। अब पूर्वकृत शुभ कर्मवश मनुष्य जन्म मिला है, साथ ही आर्यत्व, परिपूर्ण पंचेन्द्रिय, उत्तम धर्मश्रवण तथा उस पर श्रद्धा और फिर धर्माचरण करना आदि दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति तुम्हें हुई है। अतः अब बिल्कुल प्रमाद किये बिना वीतरागता की दिशा में पुरुषार्थ करो। इस प्रकार का कर्मविज्ञान गर्भित उपदेश पाकर गौतम स्वामी की अन्तरात्मा पुनः अंगड़ाई लेकर वीतरागता की दिशा में अधिकाधिक पुरुषार्थ करने लगी। उनका जीवन-परिवर्तन करने में पहले (गणधर पद प्राप्ति से पूर्व) भी कर्मविज्ञान के उपदेश का प्रय रहा और अब भी। अन्ततोगत्वा वे भगवान् महावीर के प्रति प्रशस्तराग को भी छोड़ कर मोक्षगामी हुए। १. (क) देखें-शालिभद्र चरित्र (आचार्य श्री जवाहरलालजी) (ख) उत्तराध्ययन अ. २१, गा. ८-१० देखें। (ग) देखें-चित्त संभूतीय अध्ययन, उत्तराध्यन अ. १२, गा.८, १३,२२ २. देखें-उत्तराध्ययन का दसवाँ द्रुमपत्रक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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