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१४८ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
कर्मपरिणाम को देखने-समझने एवं उपदेश-निर्देश तथा प्रेरणा को ग्रहण करने से शीघ्र
घटित हो जाता है। कई बार कुछ देर से परिवर्तन होता है, ठोकरें खाते-खाते स्वभाव. में परिवर्तन होने के साथ ही कर्म-परिवर्तन और कर्म-परिवर्तन के साथ ही जीवन परिवर्तन होता है। कर्मविज्ञान एक थर्मामीटर (ताप-मापक यंत्र ) की भाँतिकर्मपरिवर्तन के साथ ही जीवन में परिवर्तन की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति, अनुभूति, कर्म की प्रकृति, अन्य कर्म प्रकृतियों की सहस्थिति आदि बता देता है। कर्मविज्ञान के रहस्य श्रवण-मनन से जीवन में अचूक परिवर्तन
कर्मविज्ञान का जो रहस्य जान लेता है, उसे अनायास ही यह अनुभूति हो जाती है. कि यह कर्म शुभ है या अशुभ ? इस कर्म का क्या परिणाम आ सकता है ? यह कर्म जीवन की उन्नति में सहायक है या बाधक ? इस कर्म को करना चाहिये या नहीं करना चाहिए? इस प्रकार जिस कर्म से जीवन में क्रूरता बढ़ती है, रौद्रध्यान बढ़ता है, वृत्तियाँ भी कठोर हो जाती हैं, लेश्याएँ अशुभ हो जाती हैं, ऐसा व्यक्ति भी यदि कर्मविज्ञान के मर्मज्ञ एवं अनुभवी पुरुष के मुख से उक्त क्रूर कर्म से अधोगति या दुर्गति होने की, पीड़ा पाने की, अन्तिम समय में पश्चात्ताप-पूर्वक हायतोबा मचाने और आर्तध्यान करते हुए शरीर छोड़ने की बात सुनता है तो उसका प्रभाव कभी-कभी ऐसा अचूक पड़ता है कि सारा ही जीवन आमूलचूल बदल जाता है । '
कपिलमुनि एक घोर अरण्य में से होकर जा रहे थे, तभी उन्हें वहाँ के निकट चोर पल्ली के ५०० चोरों ने घेर लिया। चोरों ने मुनि की तलाशी ली तो कुछ भी उनके पास नहीं निकला। यह जानकर पल्लीपति के कहने से उन्हें छोड़ दिया गया। मुनि यतनापूर्वक मस्ती से आगे जाने लगे, तभी पल्लीपति ने उनसे कहा- " -“मुनिवर ! आप जा तो रहे ही हैं। जाते-जाते हमें एक गीत सुना दीजिए।" चोरों की प्रार्थना पर मुनि ने अपनी आपबीती को उसमें समाविष्ट करते हुए ध्रुवपद राग में एक अध्ययन सुनाया। जो उत्तराध्ययन सूत्र में कपिलीय नामक अष्टम अध्ययन के रूप में अंकित है। कर्मविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में ही उन्होंने इस प्रथम गाथा का उच्चारण किया
" अधुवे असासयम्मि संसारम्मि दुक्ख पाउराए । किं नाम होज्ज तं कम्मयं जेणाहं दोग्गइं न गच्छेज्जा ॥ अर्थात्-"यह संसार अध्रुव है, अशाश्वत है और अनेक दुःखों से परिपूर्ण है। (यह भयंकर दुःख अनेक दुर्गतियों और कुयोनियों में मनुष्य को अपने द्वारा कृत क्रूर एवं
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प्रेक्षाध्यान सितम्बर १९८९ में प्रकाशित लेख से सार-संक्षिप्त
देखें - उत्तराध्ययन सूत्र अ. ८/१ गाथा
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