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________________ जैन कर्म-विज्ञान : जीवन परिवर्तन का विज्ञान १४९ कठोर कर्मवश मिलता है।) अतः ऐसा कौन-सा कर्म है, जिसके करने से मैं दुर्गति में न जाऊँ ?” चोरों ने यह सुना तो वे आत्मविभोर हो गए। कर्मविज्ञान के सन्दर्भ में ही उन्होंने यह गाथा ध्रुवपद में गाकर सुनाई थी। चोरों के मानस को यह गाथा छू गई। उनके अन्तर्तम को झकझोर डाला। उनकी शुद्ध आत्मा जाग उठी। फिर उन्होंने अपने जीवन में चल रही अशान्ति, व्याकुलता, चिन्ता की तुलना कपिलमुनि की शान्ति, स्वस्थता, मस्ती और निश्चिन्तता से की तो उनका मानस जिज्ञासा और रुचि तथा उत्सुकता के स्वर में सुनने और जानने को उत्कण्ठित हो गया। उनके मन में भी वही प्रश्न प्रतिध्वनित होने लगा। वे स्वयं से मन ही मन पूछने लगे-क्या हम जो कुछ क्रूर कर्म कर रहे हैं, वह हमें दुर्गति में नहीं ले जाएगा ? लक्षण तो अभी से हमारे जीवन-पट पर अंकित हो रहे हैं। क्या हम भी इन महामुनि की तरह अपना भविष्य और वर्तमान निश्चिन्त, शान्त, उज्ज्वल नहीं बना सकते ? वह कौन-सा सत्कर्म है, जिससे हम अपनी दुर्गति को सुगति में, अपनी निराशा को आशा में, अपनी अन्धकारमय जिंदगी को प्रकाशमय जिंदगी में, तथा मृत्यु के पथ को अमरत्व के पथ में परिवर्तित कर सकते हैं ? और ज्यों-ज्यों विशुद्धप्रज्ञ कपिल मुनि के मुख से उत्तरोत्तर गाथाएँ सुनते गए, त्यों-त्यों चोरों का हृदय-परिवर्तन होने लगा और वे उत्तरोत्तर वैराग्य की तरंगों में बहने लगे। जब उन्होंने यह सुना कि इन क्रूर कर्मों के फलस्वरूप " प्रभूत कर्मों से लिप्त होने वाले व्यक्तियों को बोधि-प्राप्ति भी अति दुर्लभ हो जाती है, "" तब तो उन सभी चोरों ने एक साथ ही प्रतिबद्ध होकर अपने जीवन की दिशा ही बदल दी। वे चोर-जीवन को छोड़ कर इस कर्मविज्ञान की प्रेरणा पाकर साधु जीवन में संलग्न हो गए। एक कर्मविज्ञानवेत्ता चारण जंगल के रास्ते से जा रहा था। एक शिकारी भी शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर पशुओं के शिकार के लिए उसी मार्ग से जा रहा था। चारण को देखकर उसने पूछा- “क्योंजी ! जहाँ शेर, बाघ आदि रहते हैं, उस जंगल का रास्ता यही है ?" चारण ने कर्मविज्ञान की भाषा में उसे कहा जीव मारतां नरक है, जीव बचातां सग्ग। हूं जाणूं दोई बाटड़ी, जिण भावे तिण लग्गं ॥ यह सुनते ही शिकारी की आत्मा एकदम जागृत हो गई। वह शस्त्र-अस्त्र वहीं फैंक र उल्टे पैरों लौट गया। कर्मविज्ञान की प्रेरणा उसके रोम-रोम में रम गई। वह शिकारीजीवन छोड़कर सात्विक गृहस्थ जीवन यापन करने लगा। १. बहुकम्मलेवलित्ताणं बोही होई सुदुल्लहा तेसिं । Jain Education International For Personal & Private Use Only -उत्तरा ८ www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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