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________________ १४४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) जैन कर्मविज्ञान के अनुसार प्रत्यक्ष में जीते जी तो पशु का मनुष्यरूप या मनुष्य का पशुरूप में परिवर्तन स्थूल दृष्टि से नहीं देखा जाता, किन्तु वैक्रियशक्ति या वैक्रियलब्धि से देवता तो मनचाहा रूप बना सकते हैं, वैसा मनुष्य भी बना सकता है, जैसे-स्थलभद्र मनि ने अपनी साध्वी बहनों को चमत्कार बताने के लिए सिंह का रूप धारण कर लिया था। अन्य योगी भी ऐसा कर सकते हैं। परन्तु जो योगी या वैक्रियलब्धि सम्पन्न नहीं है, क्या वह पशु या मानव जीते-जी किसी उपाय से परिवर्तित हो जाता है? इसके उत्तर में हम कर्मविज्ञान के संक्रमण, उद्वर्तन और अपवर्तन के सिद्धान्त को प्रस्तुत कर सकते हैं । इन सिद्धान्तों के अनुसार आकृति से तो नहीं, परन्तु प्रकृति से मनुष्य पाशविकता या दानवता को धारण करके पशु और दानव बन जाता है, तथैव कई पशु भी मानवता को धारण करके प्रकृति से मानव बन जाते हैं। यह जैन कर्म विज्ञान की देन उदीरणाकरण का सिद्धान्त भी समय से पूर्व कर्मक्षय करने का उपाय दूसरे दर्शन जहाँ यह प्ररूपणा करते हैं कि क्रियमाण कर्म जैसा बांधा है, उसे उसी रूप में, उसी अवधि तक भोगना पड़ता है, वहाँ जैन कर्मविज्ञान उदीरणाकरण के सिद्धान्त की प्ररूपणा करते हुए कहता है कि प्राणी द्वारा अपने पुरुषार्थ से कर्म विपाक की नियत अवधि से पहले ही फल भोग के हेतु उस कर्म की उदीरणा की जा सकती है। जो कर्म समय पाकर उदय में आने वाले हैं, यानी अपना फल देने वाले हैं, उनको प्रयत्नविशेष से किसी निमित्त से समय से पूर्व ही फल भोग कर नष्ट कर देना उदीरण है। जैसे-देर से पकने वाले आम, केला आदि फलों को जल्दी पकाने के लिए पेड़ से कच्चे ही तोड़कर भूसे या पराल में दबा दिया जाता है अथवा दवा से जल्दी ही पका लिया जाता है, इसी प्रकार बंधे हुए कर्म तो नियतकाल पाकर ही फल देने हेतु उदय में आयेंगे, यह जानकर उन्हें नियतकाल से पहले ही उदय में लाकर फल भोग लेना और उन्हें क्षीण कर देना उदीरणाकरण है।' भ. महावीर ने अपने पूर्वबद्ध घोर कर्मों को उदय में आने से पहले ही, अनार्य देशों में विहार के निमित्त से घोर उपसर्ग एवं परीषह समभाव से सह करके उन कर्मों को भोग लिया था, अर्थात्-उदीरणा करके उन्हें क्षय कर डाले थे। जैन कर्मविज्ञान और आधुनिक मनोविज्ञान की उदीरणा पद्धति प्रायः समान जैनकर्मविज्ञान के समान आधुनिक मनोविज्ञान भी उदीरणा के तथ्य को स्वीकार करता है। कर्मविज्ञान की उदीरणा पद्धति यह है कि पूर्वबद्ध पापों या दोषों का आलोचन १. जिनवाणी, कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित : ‘करणसिद्धान्तः भाग्यनि । की प्रक्रिया' लेख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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