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जैन कर्म-विज्ञान की विशेषता १४३
कर्मसिद्धान्त के अनुसार पाप-प्रवृत्तियों से होने वाले दुःख, संताप, रोगादिजनित कष्ट, अशान्ति आदि से छुटकारे के लिए परोपकाररूप पुण्य प्रवृत्तियों के रूप में उदात्तीकरण किया जा सकता है।' अनुप्रेक्षा से संक्रमण में बहुत सहायता मिलती है
जैसा कि पहले शास्त्रीय उद्धरण देकर कहा गया था-"अनुप्रेक्षा से कर्म प्रकृतियों का रूपान्तरण, उदात्तीकरण, संक्रमण, उद्वर्तन और अपवर्तना होती है। अनुप्रेक्षा से आयुष्य के अतिरिक्त प्रगाढ़ बन्धन से बद्ध कर्म प्रकृतियाँ शिथिल बन्धनबद्ध हो जाती है, दीर्घकाल की स्थिति वाले पूर्वबद्ध कर्म अल्पकालिक स्थिति वाले हो जाते हैं, तीव्र अनुभाव (रस) से बद्ध कर्म मन्द अनुभाव वाले हो जाते हैं, बहुप्रदेशी कर्म अल्पप्रदेशी हो जाते हैं। यह सारा संक्रमण का सिद्धान्त जैन कर्मविज्ञान द्वारा निरूपित है। जीवों की सार्वयोनिकता का सिद्धान्त जैन कर्मविज्ञान की देन ___ आगमों में जैन कर्मविज्ञान के सन्दर्भ में प्राणी के अन्तर्जगत् के सूक्ष्म संस्कारों में परिवर्तन के आधार पर एक सूत्र दिया है-“सव्वजोणिया खलु जीवा'-जीव सार्वयोनिक होते हैं। ८४ लाख योनि के जीवों में से किसी भी योनि का जीव किसी भी योनि में जाकर उत्पन्न हो सकता है। यह सार्वयोनिक तथ्य जैनकर्मविज्ञान का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। ___ जीव की उत्पत्ति के विषय में अमुक योनि की कोई प्रतिबद्धता नहीं है। जैसा कि ब्रह्मकुमारीमत के प्रवर्तक का कथन है कि मनुष्य मरकर मनुष्य ही बनता है, गधा मरकर गधा ही बनेगा इत्यादि। किन्तु यह मत कर्मसिद्धान्त के विपरीत है। जैनकर्म सिद्धान्त का कथन है “जल्लेसे मरइ तल्लेसे उववज्जई"- अन्तिम समय में जिस लेश्या (कषायानुरञ्जित परिणाम) में प्राणी मरता है, उसी लेश्या वाले स्थान में उसी लेश्या वाली योनि में उत्पन्न होता है। इस दृष्टि से मनुष्य मर कर पशु बन सकता है, तथैव पशु मरकर मनुष्य भी बन सकता है। . आनुवंशिकी विज्ञान ने इतनी तरक्की अवश्य कर ली है, वह जीते-जी, पशु को मनुष्यरूप में तब्दील कर सकता है। आजकल खच्चर का घोड़े के रूप में, स्त्री को पुरुषरूप में तथा पुरुष को स्त्रीरूप में परिवर्तित करने का प्रयोग तो धड़ल्ले से चल रहा
१. जिनवाणी, कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'करणसिद्धान्तः भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया' लेख
से, पृ. ८३ २. कर्मवाद से, पृ. १९१
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