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१४२ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) संक्रमण का उदात्तीकरण रूप
उदात्तीकरण संक्रमण का दूसरा रूप है। वर्तमान मनोविज्ञान कुत्सित एवं निन्ध प्रकृति या प्रवृत्ति को उदात्त (शुद्ध) प्रकृति या प्रवृत्ति में रूपान्तरण को उदात्तीकरण कहता है। आधुनिक मनोविज्ञानवेत्ताओं ने उदात्तीकरण-प्रक्रिया पर विशेष अनुसन्धान किया है। उन्होंने उदात्तीकरण - प्रक्रिया के प्रयोग द्वारा उद्दण्ड, अनुशासनहीन, तथा दंगा-फसाद, तोड़-फोड़ करने वाले अपराधी मनोवृत्ति के छात्रों एवं अन्य गुमराह व्यक्तियों को उनकी रुचि के अनुरूप किसी रचनात्मक कार्य में लगा दिया है। फलस्वरूप वे पर-हानिकारक एवं दुर्गुणवर्द्धक अपराधी वृत्ति प्रवृत्ति को त्याग कर समाजोपयोगी कार्य में लग जाते हैं।'
पूर्वबद्ध कर्मों के उदात्तीकरण का उद्देश्य : दोषों का परिशोधन करना
कर्मविज्ञान के अनुसार उदात्तीकरण की प्रक्रिया दोषों का परिमार्जन - परिशोधन करने की प्रक्रिया है। उदात्तीकरण में मनुष्य प्रवृत्ति तो करता है, किन्तु उसके पीछे अनासक्ति, समता, निरवद्यता, राग-द्वेषाल्पता का भाव होता है।
जैनाचार्यों ने राग के दो प्रकार बताए हैं - प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग । जैनागमों में कुछ शब्द बार-बार प्रयुक्त होते हैं - अट्ठिमिज्जपेमाणुरागरत्ते (अस्थि-मज्जा में प्रेमानुराग से रक्त) धम्माणुरागरत्ते (धर्मानुराग-रक्त) । देव, गुरु और धर्म के प्रति राग को प्रशस्तराग कहा गया है। इससे राग में जो दोष थे, तीव्रता थी, उसका परिमार्जन कर दिया। यह राग आसक्ति का उदात्तीकरण है। वस्तुतः उदात्तीकरणरूप संक्रमण की प्रक्रिया क्षयोपशम की प्रक्रिया है। इसमें कर्मों के कुछ दोषों का सर्वथा क्षय कर दिया जाता है, और कुछ का उपशम ।
एक व्यक्ति इन्द्रिय-विषयभोगों में सुख मानता है, किन्तु उस सुख में संघर्ष, क्लेश, अन्तर्द्वन्द्व, रोग, इन्द्रियक्षीणता आदि दुःख के बीज छिपे हुए हैं, उसके हृदय में इन्द्रियविषयभोगों के क्षणिक एवं अस्थायी सुख के स्थान पर स्थायी सुखप्राप्ति का भाव उदित हुआ । उसने दूसरों की निःस्वार्थ सेवा में स्वयं को लगा दिया, उससे स्थायी सुख और आनन्द की अनुभूति हुई। प्रेम के सुख का यह बीज उदारता, एवं मैत्रीभावना में पल्लवित हो जाता है। यह है प्रवृत्ति का उदात्तीकरणरूप संक्रमण ।
9. जिनवाणी, कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित - "करणसिद्धान्तः भाग्यनिर्माण प्रक्रिया', लेख से पृ. ८३ २. कर्मवाद
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