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________________ जैन कर्म-विज्ञान की विशेषता १४५ (अन्तर्निरीक्षण या स्मरण) करके गुरु या गुरुजनों के समक्ष उनकी गर्हणा (प्रकटीकरण) करना, साधारण दोषों के लिए मिथ्या दुष्कृत बोलकर आत्मनिन्दना (पश्चात्ताप) करना, यदि प्रगाढ़ दोष हो तो उसकी शुद्धि के लिए गुरु या गीतार्थ साधकों से प्रायश्चित्त ग्रहण करना, प्रतिक्रमण करना, क्षमायाचना और भावना करना आदि उदीरणाकरण में सहायक हैं। इस प्रकार से उदीरणा करने से कर्मों का संचय (प्रदेश) स्थिति (कालावधि) एवं रसानुभावरूप तीव्रता भी घटती जाती है। इसी प्रकार अन्तर्मन में स्थित पूर्वबद्ध कर्म की ग्रन्थियों (गांठों) को प्रयत्न विशेष से समय से पूर्व उदय में लाकर फल भोग कर तोड़ा जा सकता है। वैसे तो प्राणी द्वारा अपनाए गए बाह्य आभ्यन्तर तप, त्याग, व्रत, नियम, अभिग्रह, कायोत्सर्ग, व्युत्सर्ग, आदि निमित्तों से अनायास ही कर्मों की उदीरणा होती रहती है, मगर अन्तस्तल की अगाध गहराई में छिपे हुए अज्ञात कर्मों की उदीरणा के लिए विशिष्ट पुरुषार्थ तप, त्याग, उपसर्ग-सहन, परीषहजय आदि के माध्यम से करना पड़ता है। तभी पूर्वबद्ध कर्मों की सकामनिर्जरा होती है। आधुनिक मनोविज्ञान भी जैन कर्मविज्ञान प्ररूपित उदीरणा के उपर्युक्त तथ्य को स्वीकार करता है। मनोविज्ञान की पद्धति यह है कि अवचेतन मन में स्थित विविध मनोग्रन्थियों को मनोविज्ञान चिकित्सक के समक्ष निश्छल मन से प्रगट करके उभारा जाता है, उनका रेचन अथवा वमन कराया जाता है और कुण्ठाओं, लाघव-गौरवप्रन्थियों, दबाई हुई वासनाओं, कामनाओं को ज्ञात मन में प्रकट किया जाता है। इस प्रकार वे उदय में आती हैं, और शीघ्र ही उनका फल भोग कर उन्हें समाप्त कर दिया जाता है। अर्थात-अज्ञात मन में छिपी हुई ग्रन्थियाँ बाहर प्रकट होकर नष्ट हो जाती हैं। मानसिक चिकित्सा की इस महत्वपूर्ण पद्धति से पूर्वजीवन में संचित उन-उन ग्रन्थियों के नष्ट हो जाने से तत्सम्बन्धित रोग भी नष्ट हो जाते हैं।' फर्मो के उदय और उदीरणा में अन्तर . . कर्मों के उदय और उदीरणा में अन्तर यह है कि उदय में कषायभाव की अधिकता की संभावना होने से कर्म क्षीण होने के बदले उनसे अनेकगुणे अधिक कर्म बंधने की संभावना है, जबकि उदीरणा में व्यक्ति जागरूक और सावधान रहता है, और कर्म समय से पहले उदय में आते हैं, तब वह स्वेच्छा से, समभाव से कर्मफल भोगने को तयार रहता है। अतः जितने कर्म उदीरणा से उदय में आते हैं, उन्हें वह भोग कर काट देता है, अर्थात् उतने कमों की निर्जरा कर देता है। 1. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित-'करणसिद्धान्त : भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया' लेख से, पृ. ८६ २. वहीं प Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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