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प्राक्कथन तीर्थंकर-परम्परा से पूर्व भोगभूमि का वातावरण था; जिसमें प्राणी को . आजीविका के लिए कुछ भी करना नहीं पड़ता था। कल्पवृक्ष अपने फलों द्वारा जठराग्नि को शान्त करने का काम पूर्ण करते थे। पूर्वार्जित कर्मों का भोग करता था प्राणी। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के जन्म से इस परम्परा में परिवर्तन होना : प्रारम्भ होने लगा। फलस्वरूप आजीविका अर्जन के लिए प्राणी को कर्म करने की अपेक्षा हुई। तीर्थंकर ऋषभदेव ने कर्म का प्रवर्तन किया।
किसी क्रिया का परिणाम कर्म होता है। उपयोगी और ललित कर्मों का . सूत्रपात कर आम आदमी को श्रम के प्रति आकृष्ट किया गया। शुभ अथवा अशुभ दो रूपों में विभक्त किया गया कर्म को। शुभ कर्म जीवन में सुखद परिणाम जुटाते हैं और अशुभ कर्म जुटाते हैं दुःखद परिणाम। तीर्थंकर ऋषभदेव ने दोनों ही प्रकार के कमों के रूप को स्वरूप प्रदान किया।
कर्म का विशिष्ट रूप है कला। ऐन्द्रियक और आध्यात्मिक उपयोग की नाना कलाओं का प्रवर्तन किया गया। कर्म-कला का प्रयोजन होता है जीवन में सुख ' और समृद्धि का संचार करना। इससे भी ऊपर प्रयोजन की उत्तम परिणति है : आवागमन से मुक्ति प्राप्त करना। आवागमन से छुटकारा पाकर जीव अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख-अनन्त चतुष्टय को जगाता है।
कर्म जीवन को सक्रिय बनाता है। इसी सक्रियता का परिणाम है-संसार। संसार में जीव अपने कर्मानुसार नाना प्रकार की गतियों में जन्म लेकर जीता है, मरता है। कर्म से ही संसार है। कर्म ही जीवन है। कर्म ही सुख और दुःख का दाता है। कर्म से ही यह जीवात्मा परमात्मा हो जाती है।
जब तक वह जीवन को संसरणशीलता से जीता है तब तक वह संसारी जीव कहलाता है। इस अवस्था में जीव मोह के अधीन रहता है। मोह से अनुप्राणित कर्म और उसका फल प्राणी को मिथ्यात्व की प्रेरणा देता है। मोह से मुक्त होकर जब जीव शुभ-कर्मों में ज्ञानपूर्वक प्रवृत्त होता है, तब इसे स्व और पर पदार्थों का स्पष्ट अन्तर प्रमाणित होने लगता है। इस लक्ष्य को लेकर प्राणी जो कर्म करता है उसका परिणाम होता है-सुख। सुख से शाश्वत सुख की ओर प्रवृत्त होने के लिए जो कर्म किया जाता है उसका परिणाम होता है-अन्तरात्मा। - अन्तरात्मा जीव तत्त्य का उत्कृष्ट रूप है। इस अवस्था में पहुँच कर प्राणी सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आराधना करता हुआ कर्म करता है। दर्शन श्रद्धान को जन्म देता है और ज्ञान शक्ति का संचार करता है। जबकि चारित्र तो दर्शन और ज्ञान का वैज्ञानिक प्रयोग है। इस त्रिवेणी के तादाम्य से मोक्ष मार्ग का प्रवर्तन होता है। संयम और तपाचरण पूर्वक जो साधना सम्पन्न होती है वह प्राणी को जागतिक वैभव से मुक्त कर आध्यात्मिक आलोक से भर देती है।
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