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________________ (१३) ... अब जरा विचारिए, जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। कषाय के साथ जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, तभी बंध की स्थिति बनती है। यह जीव अनादि काल से अष्ट कर्मों के बंधनों से जकड़ा हुआ है। इस बंध-बोझ को मोचना ही वस्तुतः कहलाता है-मोक्ष। कर्म से निष्कर्म होना ही उसकी मुक्तावस्था है। इस प्राकृत कर्म-विधान में कोई शक्ति कभी परिवर्तन नहीं कर सकती है। यदि उसमें कोई परिवर्तन कर सकता है तो उस कर्म का कर्ता ही स्वयं उन कर्मों को न कर अपने में परिवर्तन ला सकता है। सत् कर्म सब धर्मों का सार है। विवेच्य कृति में विद्वान लेखक उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि ने कर्म का बड़े विस्तार से विवेचन किया है। कृति में उसका श्रद्धा पक्ष, उसका ज्ञान पक्ष और उसका चारित्र अर्थात् विज्ञान पक्ष इस प्रकार विवेचित किया गया है कि कर्म का संसार एकदम स्पष्ट और सुगम हो गया है। विश्व की जितेनी धार्मिक मान्यताएँ हैं उन सब में कर्म की चर्चा की गई है किन्तु जैन दर्शन में कर्म की विवेचना जितनी सक्ष्म और विशद की गई है, उतनी अन्यत्र प्रायः दुर्लभ ही है। मनीषी चिन्तक ने बखूबी कर्म-कुल.का बारीकी के साथ मंथन किया है। लेखक स्वयं शास्त्री है, परन्तु विवेचन में शास्त्र की अपेक्षा विज्ञानी-पद्धति का प्रयोग परिलक्षित है। भाषा के स्वरूप और उसके प्रयोग का जहां तक प्रश्न है लेखक ने आर्ष उदाहरणों के अतिरिक्त जिस भाषा का प्रयोग किया है, वह अनुभव की प्रयोगशाला से दीक्षित होकर निःसत हुई है। उसमें निश्चितता है, प्राञ्जलता है, आधुनिकता है और सहज प्रभावात्मकता है। . वैज्ञानिक तर्कशील पद्धति का प्रयोग कर महामनीषी लेखक ने कर्म सिद्धान्त का इस प्रकार स्पष्ट और सुबोध शैली में विवेचन किया है कि पाठक को पारायणी परिश्रम किए बिना तथ्य और सत्य का सुबोध सुगमता पूर्वक हो जाता है। विषय उपस्थापन में लेखक की प्रज्ञापटुता प्रमाणित हो जाती है। - इतने विशद और विवेक पूर्ण कर्म-कुल पर लिखी गई प्रस्तुत कृति, कदाचित विषा-वाङ्मय में पहल करती है। लेखन में उत्तम, मुद्रण और प्रकाशन में उत्तम प्रस्तत कति विवेच्य सामग्री की भाँति प्रतिमान स्थापित करती है। दर्शन और ज्ञान के अध्येताओं के लिए प्रस्तुत कृति मौलिक सामग्री, मौलिक विचारणा के लिए परवस आकृष्ट करती है। विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रम में स्थिर करने के लिए विद्वान् मेखक की विरल कृति किसी संस्तुति की आवश्यकता नहीं रखती क्योंकि वह कर्म-विवेक का विश्वकोश है। इतनी सुन्दर और सप्रासंगिक संरचना के लिए विश्रुत लेखक, प्रकाशक तथा मुद्रक को बहुत-बहुत बधाइयाँ । इत्यलम् मंगल कलश ३९४, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़ डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया (एम.ए., पी-एच.डी., डी.लिट.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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