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जैन कर्म-विज्ञान की विशेषता १३७
पूर्वकृत उस दुष्कर्म के प्रति संवर तथा तपश्चरण से निर्जरा करता है तो उस पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति और फलदान शक्ति घट जाती है। बशर्ते कि वह पूर्वबद्ध अशुभ या शुभ कर्म अभी तक सत्ता में पड़ा (संचित अवस्था में) हो, उदय में न आया हो।
इसी प्रकार कोई व्यक्ति पहले शुभ कर्म करके उच्च देवलोक का आयुष्य बांध लेता है, किन्तु बाद में (उदय में आने से पूर्व ) उसके शुभभावों में गिरावट आ जाए तो उसका आयुष्य बन्ध निम्नस्तरीय देवलोक का हो जाता है। उसकी शुभफलदानशक्ति भी घट जाती है।
इस सम्बन्ध में श्रमण भगवान् महावीर ने पावापुरी के अन्तिम प्रवचन में अनुप्रेक्षा के सन्दर्भ में स्पष्ट कहा है ।
भगवान् से प्रश्न किया गया है-भंते! अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया-'" - " अनुप्रेक्षा से आयुष्कर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीय आदि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल कर देता है; दीर्घकालीन स्थिति को ह्रस्व (अल्प) कालीन कर लेता है; उनके तीव्र सानुभाव को मन्दरसानुभाव कर लेता है। (कदाचित् ) बहुकर्मप्रदेशों को अल्पकर्म प्रदेशवाले कर लेता
है.
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निष्कर्ष यह है कि जैन कर्मविज्ञान के अनुसार जीव अपने पूर्वबद्ध संचित (सत्ता में स्थित) कर्मों के फल में अपने स्वयं के पुरुषार्थ से, अपने स्वयं के शुभ-अशुभ भावों से तथा अपने द्वारा कृत राग-द्वेष या कषाय की तीव्रता - मन्दता से पूर्वबद्धकर्मों की स्थिति (अवधि) और रसानुभाव को न्यूनाधिक कर सकता है। उन कर्मों की फलदान की शक्ति को भी घटा-बढ़ा सकता है।
इसे ही उद्वर्तनाकरण एवं अपवर्तनाकरण कहते हैं।
जैनकर्मविज्ञान के नियमानुसार कर्म की फलदानशक्ति न्यूनाधिक भी हो सकती है
परन्तु अधिकांश व्यक्ति कर्मविज्ञान के इन नियमों और रहस्यों से अनभिज्ञ हैं, इस कारण अनेक भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। जिस प्रकार कर्मविज्ञान का एक नियम है
१. जिनवाणी, कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित - "करण सिद्धान्तः भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया " - शीर्षक लेख से पृ. ८१
२. ( प्र . ) अणुप्पेहाए णं भंते ! जीवे किं जणयई ?
(उ.) अणुप्पेहाएणं आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ घणिय बंधन - बद्धाओ सिढिल बंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालट्ठिइयाओ हस्सकालट्ठिइयाओ पकरेई; तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ करेइ। (बहुपएसगाओ अप्पपएसगाओ पकरे ) ......
- उत्तराध्ययन. अ. २९ सू. २१
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