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________________ १३६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) नशेवाली मदिरा पी, उसके बाद उसको मदिरापान का चस्का लग जाने से वह बार-बार उससे भी अधिक तेज नशे वाली शराब बगैर संकोच के बेधड़क पीने लगा। फलतः उसके नशे की शक्ति और नशे की अवधि भी पहले से अधिक बढ़ जाती है। इसी प्रकार लोभादि या राग-द्वेष के कारण पूर्व में बद्ध कमों को तीव्र लोभ आदि करने अथवा तीव्र राग-द्वेष पूर्वक करने से या कषाय का अधिकाधिक निमित्त मिलने से तत्सम्बन्धी कर्मों की स्थिति और फल देने की शक्ति बढ़ जाती है। इसे ही कर्मों की स्थिति और रस का उद्वर्तनाकरण कहते हैं।' यह तभी सम्भव है, जब सत्ता में स्थित (संचित) कर्म की स्थिति एवं रस (अनुभाग) से वर्तमान में बध्यमान (क्रियमाण) कर्म की स्थिति और रस का अधिक और तीव्रतर बन्ध हो। फिर यह उद्वर्तन जिस प्रकार अप्रशस्त राग या कषाय की वृद्धि से आयुकर्म को छोड़कर शेष समस्त कर्मों की सब अशुभकर्म प्रकृतियों की स्थिति में एवं समस्त पाप प्रकृतियों के रस (अनुभाग) में वृद्धि से होता है, उसी प्रकार प्रशस्त राग अथवा कषाय में मन्दता से, शुभ भावों की विशुद्धि से पुण्य प्रकृतियों के रस (अनुभाग) में वृद्धि से भी (उद्वर्तन) होता है। अपवर्तनाकरण में इससे विपरीत होता है। अर्थात्-पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और रस का कम हो जाना, घट जाना अपवर्तनाकरण है। जैसे-खेत में कोई प्रतिकूल या जहरीला पौधा उग आता है तथा उस पौधे को प्रतिकूल ताप, जलवायु तथा खाद मिलने से उस पौधे की आयु एवं फलदान की शक्ति घट जाती है। इसी प्रकार पहले से बद्ध (बांधे हुए) और वर्तमान में सत्ता में स्थित (संचित) अशुभ कर्म के प्रतिकूल कोई तत्सजातीय शुभ कर्म करे तो उस पूर्वबद्ध (अशुभ) कर्म की स्थिति एवं फलदान शक्ति घट जाती है, कम हो जाती है। जैसे-श्रेणिक राजा ने अपने पूर्वजीवनकाल में क्रूर कर्म करके तीव्र रस से सातवीं नरक का आयुष्य कर्म बांध लिया था, किन्तु बाद में वह भगवान् महावीर की शरण में आया, उनकी पर्युपासना से उसे सम्यक्त्व प्राप्त हुआ। अपने कृतकर्मों पर उसने पश्चात्ताप किया तो शुभ (रस) भावों के प्रभाव से सप्तम नरक का आयुष्य (स्थिति) घटकर प्रथम नरक का ही रह गया। इसी प्रकार पहले किसी अशुभ कर्म का बध करने के पश्चात् जीव यदि उसके लिए पश्चात्ताप करता है, आलोचना, निन्दना करके प्रायश्चित्त ग्रहण करता है, और १. जिनवाणी, कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'करण सिद्धान्त : भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया' लेख से पृष्ठ ८२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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