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________________ जैन कर्म-विज्ञान की विशेषता १३५ जैन कर्मविज्ञान के अनुसार कर्म में ही ऐसी शक्ति स्वतः उत्पन्न हो जाती है कि वह स्वतः समय पर उसका फल कर्ता को दे देता है। जैन कर्मविज्ञान की विशिष्ट देन : पूर्वबद्ध संचित कर्मों के फल में परिवर्तन सामान्यतया सभी कर्मवादी दर्शन इस सिद्धान्त को मानते हैं-"कृतकर्म को भोगे बिना वह क्षय नहीं हो सकता, कृत कर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं है । " परन्तु जैन कर्मविज्ञान की यह विशेषता है कि उसके पुरस्कर्ताओं ने उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा' के आपवादिक सूत्र कर्म सिद्धानत के सन्दर्भ में जगत् के समक्ष प्रस्तुत किये। उसके पीछे उनका प्रत्यक्ष अनुभव भी था, उसका प्रयोग अपने जीवन में उनके द्वारा आचरित भी था। इनका फलितार्थ उन्होंने बताया कि कर्म करते ही आम्रव के रूप में कर्मपरमाणु आकृष्ट होते हैं, फिर राग-द्वेष या कषाय की तीव्रता - मन्दता के अनुसार बन्ध होता है। अधिकांश कर्म बन्ध होते ही प्रायः तुरन्त अपना फल नहीं दे देते हैं। वे जब तक उदय में नहीं आते, तब तक सत्ता में (संचितरूप में) पड़े रहते हैं, उदय में आने से पूर्व जो कर्म सत्ता में (संचित) पड़े रहते हैं, वे कुछ भी फल देने में असमर्थ होते हैं। अतः उन संचित कर्मों की प्रकृति.(सजातीय उत्तर प्रकृति) को परम्पर एक दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है, उनकी स्थिति भी दीर्घकालीन हो तो उसे ह्रस्वकालीन और ह्रस्वकालीन हो तो दीर्घकालीन भी की जा सकती है। उनके उदय में आने की अवधि से पूर्व ही उदीरणा करके उदय में लाकर उन्हें समभाव से भोग कर क्षय किया जा सकता है। उनकी प्रकृति को बदला जा सकता है, तपस्या, परीषहजय, चारित्र - पालन, समिति - गुप्ति - पालन, महाव्रत, संयम, नियम, त्याग - प्रत्याख्यान आदि से उन कर्मों के क्षय, क्षयोपशम या उपशम आदि के द्वारा क्षीण या उपशान्त किये जा सकते हैं। उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण का रहस्य सर्वप्रथम हम यहाँ कर्मविज्ञान द्वारा प्ररूपित उद्वर्तनाकरण एवं अपवर्तनाकरण की कुछ झांकी देते हैं उद्वर्तनाकरण वह है, जिस क्रिया या प्रवृत्ति से बंधे हुए कर्म की स्थिति और रस (अनुभाग) में वृद्धि होती है। कर्मों की स्थिति और रस में वृद्धि तभी होती है, जब पहले बांधी हुई कर्म प्रकृति के अनुरूप पहले से अधिक प्रवृत्ति की जाती है, या पहले से अधिक रस लिया जाता है। जैसे- किसी व्यक्ति ने पहले डरते-डरते संकोच करते हुए साधारण १. इनके विस्तृत विवेचन के लिए देखें इसी खण्ड का नं. ९ (कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद' शीर्षक) निबन्ध। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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