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१३४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) ___आचारांगसूत्र में तुमंसि नाम सच्चेव, जं हंतव्वं ति मन्नसि"(तुम वही हो, जिसे तुम मारने का विचार करते हो।) इत्यादि सूत्रों के द्वारा कर्मविज्ञान के इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
जिन धर्मों, मत-पंथों या सम्प्रदायों के समक्ष मानवजाति तक का आदर्श है, वे प्रायः पशु-पक्षियों की हत्या में कोई दोष नहीं मानते। देवी-देवों के नाम पर पशु-पक्षियों की बलि देने में अथवा खुदा के नाम पर बकरों या दुम्मों की कुर्बानी करने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। परन्तु जैनकर्मविज्ञान का स्पष्ट उद्घोष है कि पशु-पक्षियों में भी जीव है, उन निर्दोष निरपराध पशुओं की किसी भी रूप में हत्या करना, उन्हें अत्यधिक पीड़ा देना, उन पर अत्यन्त बोझ लादना, उन्हें भूखे-प्यासे रखना, उनके साथ निर्दयता का व्यवहार करना, हिंसाजन्य पापकर्म है। ___अपने देशवासियों से भिन्न दूसरे देश के लोगों पर अन्याय, अत्याचार करना, उन्हें गुलाम बनाकर पशु से भी अधिक क्रूर व्यवहार करना, उन्हें यातनाएँ देना आदि भी अमानुषिक कर कर्म हैं। जैनकर्मविज्ञान की यही विशेषता है कि वह केवल मानवजाति के प्रति ही नहीं, अशुभ (पाप) कर्म से बचने के लिए प्राणिमात्र के प्रति आत्मवत्सर्वभूतेषु की भावना, दृष्टि तथा तन-मन-वचन की प्रवृत्ति को मोड़ देता है। जैन कर्मविज्ञान का मन्तव्य : फलदाता स्वयं कर्म ही है
जैनकर्मविज्ञान की एक विशेषता यह है कि इसने कर्म सिद्धान्त के अनेक नियमों और रहस्यों का उद्घाटन किया है। वैसे तो जैनकर्मविज्ञान फलदान के सम्बन्ध में ईश्वर को बीच में नहीं लाता। उसका कहना है कि कर्म स्वयं अपना फल कर्ता को दे देता है। उसमें ईश्वर या किसी भी शक्ति या देवी-देव को बीच में लाने की आवश्यकता नहीं रहती।
वैदिक परम्परा के मूर्धन्य विद्वानों ने भी यह स्वीकार किया है कि ईश्वर भी स्वयं अपनी मर्यादा में रहता है, वह भी तो जीव के जैसे-जैसे कर्म होते हैं, तदनुसार ही फल देता है। अतः भगवद्गीता में स्पष्ट कहा गया है-“ईश्वर न तो संसार (लोक) का कर्ता है, न ही प्राणियों को कर्म से अथवा कर्मफल संयोग से जोड़ता है, यह सब स्वभावतः प्रवृत्त होता है।
१. आचारांग सूत्र श्रु. १, अ. ५ उ.५ स्. ५७२. २. देखें आवश्यक सूत्र में श्रावक के अहिंसाणुव्रत के पांच अतिचार-'"बंधे, वहे, छविच्छेए,
अइभारे, भत्त-पाण-वुच्छेए।" ३. "न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।"
-भगवद्गीता ५/१४
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