SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ कर्म-विज्ञान भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता ( ४ ) कि कर्म का फल कर्ता को भुगवाने की शक्ति कर्म में स्वतः उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार कर्म की फलदान की शक्ति को न्यूनाधिक भी किया जा सकता है। यह शक्ति-परिवर्तन का सिद्धान्त जैनकर्मविज्ञान की विशिष्ट देन है। इस नियम के अनुसार फलदान की काल-सीमा को घटाया भी जा सकता है और बढ़ाया भी जा सकता है। यह शक्ति के न्यूनीकरण और शक्ति के संवृद्धिकरण का सिद्धान्त जैन कर्मविज्ञान की ही विश्व के प्राणियों को देन है। कर्मों की फलदानशक्ति में तारतम्य क्यों और किस कारण से? विश्व के समस्त परमाणुओं में अपने-अपने प्रकार की शक्ति या क्षमता होती है। कर्म-परमाणुओं में भी तब एक विशेष प्रकार की शक्ति या क्षमता निर्मित होती है, जब कर्ता द्वारा वे आकृष्ट किये जाते हैं। उस फल देने की क्षमता या शक्ति को जैन पारिभाषिक शब्दों में अनुभागबन्ध (रसबन्ध) कहते हैं। सभी कर्मपरमाणुओं में एक-सी फलदान शक्ति निर्मित नहीं होती है। जैसे पदार्थों में शक्ति और मात्रा का तारतम्य होता है, वह उसकी विशिष्ट संरचना के आधार पर होता है, इसी प्रकार कर्मों की फलदान शक्ति तारतम्य होता है, वह भी उन उन कर्मपरमाणुओं की विशिष्ट संरचना के आधार पर होता है। अर्थात् - यह विशिष्ट संरचना कर्म कर्ता की रागद्वेष या कषाय की तीव्रता - मन्दता के आधार पर होती है। जीव जिस क्षण कर्म- पुद्गलों को आकर्षित करता है, उस क्षण में यदि उसमें रागद्वेष या कषाय की मात्रा तीव्र होती है तो उन कर्म पुद्गलों की फल प्रदान शक्ति भी तीव्र हो जाती है, और यदि रागद्वेष आदि की मात्रा मन्द होती है, तो फल प्रदान शक्ति भी मन्द हो जाती है ।' मनोविज्ञान की तरह कर्मविज्ञान में भी कर्मफल की स्व-संचालित व्यवस्था है वैसे तो कर्म में फल प्रदान करने की शक्ति स्वाभाविक है, इसमें किसी भी अन्य नियामक या व्यवस्थापक की अपेक्षा नहीं रहती, वह उसकी स्वयं संचालित व्यवस्था है। कर्म का फल प्रदान करने की अपने आप में क्षमता है। कर्ता उस क्षमता को समझे तो कर्म की फलदान शक्ति को स्वयं बदल सकता है। मनोविज्ञान की दृष्टि से सोचें तो भी कर्म की यह स्वयं संचालित व्यवस्था युक्तिसिद्ध घटित हो जाती है। जैसे कोई व्यक्ति किसी से ईर्ष्या, द्वेष या मात्सर्य करता है, घृणा करता है, अथवा उसके प्रति अन्याय-अत्याचार या असहिष्णुता का व्यवहार १. (क) कर्मवाद में प्रकाशित. कर्म की रासायनिक प्रक्रिया - २ शीर्षक लेख से, पृ. ३६ (ख) जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित - "करण सिद्धान्त : भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया' लेख से पृ. ८०/८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy