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जैन कर्म-विज्ञान की विशेषता १२७
उसमें मौजूद है। कर्म का आवरण उस पर आया हुआ है। आवरण हट जाने पर चेतना अपने परिपूर्ण रूप में प्रकट होती है, जिसे ही ईश्वरभाव या ईश्वरत्व-प्राप्ति कहा जाता है। अतः वर्तमान में आत्मा परमात्मा का अंश है, यह जो कहा जाता है, उसका मतलब है-आत्मा में अभी जितनी ज्ञानकला व्यक्त है, वह परिपूर्ण, किन्तु अव्यक्त ( आवृत) चेतना-चन्द्रिका का एक अंशमात्र है । '
बहिरात्मा से अन्तरात्मा और परमात्मा बनने की प्रक्रिया : जैनकर्मविज्ञान में
जैनकर्मविज्ञान व्यक्त और अव्यक्त परम- आत्मा (शुद्ध आत्मा) के तीन विभाग करके आत्मा में परमात्मत्व-प्राप्ति की योग्यता का दिग्दर्शन कराता है। वे तीन विभाग ये हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । शरीरादि आत्मबाह्य पर भावों में जिसकी आत्मबुद्धि होती है, वह बहिरात्मा है। जिसने शरीर और आत्मा का अथवा परभाव और स्वभाव की अभिन्नता की भ्रान्ति दूर कर दी है, वह सम्यग्दृष्टि व्यक्ति अन्तरात्मा है और जो अन्तरात्मा बन कर रागद्वेषादि से दूर रहता है और केवल ज्ञाता-द्रष्टा रहता है, वह परमात्मभाव की ओर अपने कदम तीव्रता से बढ़ाता है और एक दिन स्वयं सिद्ध, बुद्ध, .. कर्म-मुक्त अशरीरी परमात्मा बन जाता है।
जैनकर्मविज्ञान कर्म के उभयपक्ष को समुचित स्थान देता है
जैनकर्मविज्ञान की एक विशेषता यह भी है कि वह कर्म के भौतिक (पौद्गलिक) एवं भावात्मक दोनों पक्षों को समुचित यथायोग्य स्थान देकर जड़ (द्रव्यकर्म) और चेतन (भावकर्म) के बीच एक वास्तविक सम्बन्ध बताता है। सांख्यदर्शन एवं योगदर्शन के अनुसार कर्म पूर्णतः जड़ 'प्रकृति' से सम्बन्धित है, इसलिए वहाँ प्रकृति ही बन्धनयुक्त होती है और बन्धनमुक्त भी वही होती है। बौद्धदर्शन के अनुसार कर्म पूर्णतः चेतना से सम्बन्धित है, इसलिए चेतना ही बन्धनबद्ध होती है, और वही बन्धनमुक्त होती है। न्यायदर्शन कर्म को चेतननिष्ठ मानता है। किन्तु जैनकर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने इन सबको एकांगी दृष्टिकोण माना। उन्होंने कहा कि कर्म का एकान्त जड़ (चेतनाहीन) पक्ष माना जाएगा तो वह आकारहीन विषयवस्तु होगा, और यदि कर्म का एकान्त चैतसिक पक्ष माना जाएगा तो वह विषयवस्तुहीन आकार होगा। ये दोनों ही एकांगी और वास्तविकता से रहित हैं। इस विषय में डॉ. नथमल टांटिया के विचार जैनकर्मविज्ञानसम्मत और मननीय हैं-‘“कर्म अपने पूर्ण विश्लेषण में जड़ और चेतन के बीच में योजक
१. देखें - कर्मग्रन्थ भाग १ प्रस्तावना (पं. सुखलालजी) पृ. १८
२ . वही, प्रस्तावना पृ. १८
३. देखें - जैनकर्मसिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन ( डॉ. सागरमल जैन) पृ. १७.
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