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________________ १२८ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) कड़ी है। यह चेतन और चेतन संयुक्त जड़ के पारस्परिक परिवर्तनों की सहयोगिता को अभिव्यक्त करता है। "" जैनकर्मविज्ञान आत्मा और कर्म - परमाणुओं (भौतिक तत्त्व) के बीच तादाम्य सम्बन्ध न मानकर दोनों का संयोग सम्बन्ध मानता है। जबकि चार्वाक आदि भौतिकवादी दार्शनिकों ने जड़ाद्वैतवाद यानी आत्मा और कर्म दोनों को जड़ मानकर छुट्टी पाली। उधर शांकर वेदान्त और बौद्धदर्शन ने चैतन्याद्वैतवाद स्वीकार किया। पश्चिम जगत् में बर्कले ने भी जड़ की सत्ता को मनस् से पृथक् स्वतन्त्र न मानकर ऐसी ही एकत्ववाद की मान्यता को प्रश्रय दिया था । किन्तु एकत्ववाद में कर्मों के संवर, , निर्जरा और मोक्ष की समुचित व्याख्या संभव नहीं। पश्चिम में यह समस्या 'देकार्त' के सामने भी आई। उसने इस समस्या का हल प्रतिक्रियावाद के आधार पर किया। लेकिन चेतन और जड़ की स्वतंत्र सत्ताओं में प्रतिक्रिया कैसे सम्भव है ? स्पिनोजा ने उसके बदले 'समानान्तरवाद' का और 'लाईबनीज' ने प्रतिक्रियावाद की कठिनाइयों से बचने के लिए सृष्टि निर्माण के समय ईश्वर द्वारा पूर्व स्थापित 'सामंजस्यवाद' का प्रतिपादन किया। कर्मविज्ञान ने आत्मा के साथ शरीर का सम्बन्ध कार्मण शरीर द्वारा माना इस प्रकार पाश्चात्य जगत् में जो समस्या अचेतन शरीर और सचेतन आत्मा या चेतन को लेकर थी, वही भारतीय दार्शनिकों के समक्ष प्रकृति, त्रिगुण, या कर्मपरमाणु और आत्मा के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर थी। अगर गहराई से सोचें तो यह समस्या शरीर और आत्मा के सम्बन्ध को लेकर है। समस्त देहधारियों की आत्मा के साथ अनादिकाल से पुद्गल-निर्मित शरीर है। शरीर हलन चलन कार्य या कर्म का माध्यम है, और आत्मा चेतना, ज्ञान या अनुभूति का माध्यम । बिना आत्मा के सभी पुद्गलात्मक शरीर निष्क्रिय, निर्जीव और जड़ हैं। किसी भी शरीर में जब तक आत्मा रहती है, तभी तक वह शरीर या पुद्गल (कर्मवर्गणा के पुद्गल) काम करते हैं, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार विद्युत्-संचालित सब प्रकार की मशीनें । विद्युत् संचालित यंत्र या तंत्र विभिन्न प्रकार की बनावटों वाले होते हैं, किन्तु बिना बिजली के कुछ भी काम नहीं कर सकते । इसी प्रकार देहधारियों के शरीर की बनावट विभिन्न प्रकार की होती है, वे सभी आत्मा के रहने पर ही काम करते हैं। स्थूल शरीर तो विनाशशील है, वह तो एक जन्म तक ही रहता है, फिर अगले जन्म या जन्मों में कर्मों का निर्यात अथवा पूर्वजन्म या जन्मों १. देखें -Studies in Jain Philosophy, p. 228. २. जैनकर्मसिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से पृ. १७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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