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________________ १२६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) थोड़े-से शब्दों में कहें तो जीव कर्मयुक्त सामान्य आत्मा से कर्ममुक्त परमात्मा कैसे बन सकता है ? इसकी सारी आद्योपान्त विधि भी जैनकर्मविज्ञान स्पष्ट बताता है। जैनकर्म-विज्ञान : एकेश्वरवाद के बदले अनन्त-परमात्मवाद का समर्थक अन्य कतिपय दर्शन जहाँ ईश्वर को जगत् का नियन्ता तथा कर्मफल भुगताने वाला मानकर उस एक ही ईश्वर (परमात्मा) को मानते हैं, और अन्य किसी आत्मा को परमात्म-पद प्राप्त करने का अधिकार नहीं देते। उस एकेश्वरवाद को-एक की मोनोपोली (एकाधिकार) को जैनकर्मविज्ञान नहीं मानता। उसका कहना है कि ईश्वर (परमात्मा) भी चेतन है, संसारी आत्मा भी चेतन है, दोनों में अन्तर यही है कि परमात्मा कर्ममुक्त है, संसारी आत्मा कर्मयुक्त है। अगर संसारी आत्मा ज्ञानादि की तथा वीतरागता आदि की साधना करके घाती एवं अघाती सभी कर्मों से रहित हो जाए, तो उसे कर्ममुक्त निरंजन निराकार सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बनने में कौन-सी आपत्ति है? जैनकर्मविज्ञान की यही विशेषता है कि उसने एकेश्वरवाद की मान्यता से विपरीत कर्मों से सर्वथा मुक्त अनन्त सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बनने की मान्यता पर जोर दिया है।' जैनकर्म-विज्ञान : अनन्तज्ञानादि चतुष्टय-प्राप्ति का प्रेरक जैनकर्मविज्ञान की इस सरल, सरस, सुगम एवं व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध रीति-नीति को अपनाकर मानवमात्र राग-द्वेष, कषाय, काम, मोह आदि कर्मबन्ध के कारणों से दूर रहकर जन्म, जरा, मरण, भय, शोक, रति, अरति, जुगुप्सा, कामवासना, तनाव, चिन्ता, अभाव, पराधीनता, दबाव आदि दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। वह सदा के लिए इन सर्व दुःखोत्पादक कर्मों से मुक्त होकर संसार और शरीर से अतीत, अविनाशी, शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अजर-अमर, निरंजन-निराकार, अनन्तज्ञानादि चतुष्टय का स्वामी हो सकता है। जैनकर्मविज्ञान :आत्मा को परमात्मा बनाने की कला का शिक्षक निष्कर्ष यह है कि जैनकर्मविज्ञान ‘अप्पा सो परमप्पा'-आत्मा ही परमात्मा है इस सिद्धान्त को व्यवहार में क्रियान्वित करने की पद्धति बताता है, और आत्मा को परमात्मपद प्राप्त करने की कला सिखाता है। कर्मविज्ञान यह भी स्पष्ट कर देता है कि यद्यपि वर्तमान में आत्मा परमात्मभाव से काफी दूर है, किन्तु परमात्मभाव का बीज १. (क) ईश्वरकर्तृत्ववाद के निराकरण के लिए देखें -द्वितीय खण्ड का “कर्मवाद पर आक्षेप और परिहार" शीर्षक निबन्ध (ख) एकेश्वरवाद के खण्डन के लिए देखें-द्वितीय खण्ड का "कर्गवाद के अस्तित्वविरोधी वाद-२" शीर्षक निबन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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