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जैन कर्मविज्ञान की विशेषता
जैनकर्म-विज्ञान : सर्वांगीण जीवन-विज्ञान
जैनदर्शन का कर्म-विज्ञान समग्र जीवन से यानी जीवन के स्थूल सूक्ष्म कार्यकलापों से सम्बन्धित होने के कारण जीवन-विज्ञान है। इसमें जीवन का जन्म से लेकर मृत्यु तक का, बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था का, तथा इस जीवन से पहले के अनेक जीवनों के अच्छे-बुरे कर्मों का लेखाजोखा है। इतना ही नहीं, इसमें वर्तमान जीवन के आधार पर भावी जीवन का चित्रण भी है। संक्षेप में कहें तो जैन कर्म विज्ञान में, त्रैकालिक जीवन की समस्त स्थितियों का सर्वांगपूर्ण विवेचन है। इसमें प्रत्येक जीव का जन्म क्यों, कब, कैसे, कहाँ और किस प्रकार के संयोगों में होता है ? जन्म लेने के अनन्तर तन, मन, वचन, इन्द्रिय, आहार, श्वासोच्छ्वास तथा दशविध प्राण आदि कैसे, किन कारणों से प्राप्त होते हैं ? इनसे सम्बन्धित विकार कौन-कौन-से हैं? उन विकारों की उत्पत्ति कैसे होती है ? उनके कारण और निवारणोपाय क्या-क्या हैं ? इत्यादि समस्त विषयों पर विशद प्रकाश डाला गया है। इसलिए जैनकर्मविज्ञान को सर्वांगीण जीवनविज्ञान कहने में कोई अत्युक्ति नहीं हैं।
जैनकर्मविज्ञान : कर्मावृत दशा के साथ-साथ कर्ममुक्त दशा का भी प्ररूपक
जैनकर्मविज्ञान की विशेषता यह है कि यह आत्मा की केवल कर्मावृत दशा का ही वर्णन करके नहीं रह जाता, अपितु उसकी कर्ममुक्त दशा का भी वर्णन करता है। अर्थात् शुद्ध आत्मा कर्मों से कैसे लिप्त हो जाती है ? कर्मों के बन्ध होने के बाद वह आत्मा पर क्या-क्या प्रभाव डालता है ? किस-किस प्रकार की स्थिति में पहुँचा देता है ? इस प्रकार
कर्मयुक्त दशा का भी वह सांगोपांग निरूपण करता है तो साथ ही यह भी निरूपण करता है कि वह शुभ-अशुभ कर्मों से कैसे बच सकता है ? तथा पहले बाँधे हुए कर्मों से छुटकारा कैसे पा सकता है ? कर्मों का जत्था बहुत अधिक हो और आयु स्वल्प हो, अथवा पापकर्मों का बन्धन अधिक हो, पुण्यकर्मों का कम हो तो कैसे उस विपुल संचित कर्मराशि को अल्पकाल में ही भोग कर क्षीण कर सकता है ? अथवा अशुभ को शुभ में कैसे परिवर्तित कर सकता है और अन्त में कर्मों से सर्वथा मुक्त कैसे हो सकता है ?
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