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________________ १२२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) विशुद्धि वाला जीव, इतनी ही कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का, उदय का, उदीरणा और सत्ता का अधिकारी हो सकता है। अर्थात्-गुणस्थान-क्रम को लेकर प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों की बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता से सम्बन्धित योग्यता विशदं रूप से बता दी जैन कर्मविज्ञान में कर्म का क्रमबद्ध, व्यवस्थित और विस्तृत चिन्तन जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त की आद्य इकाई है-कर्म का स्वरूप। कर्म के स्वरूप के विषय में दार्शनिकों के विभिन्न मत हैं। कोई कर्म को चेतननिष्ठ मानता है, और कोई अचेतन का परिणाम मानते हैं। इस मत-विभिन्नता के कारण कर्म के अस्तित्व का स्वीकार करने के बावजूद भी वे दार्शनिक कर्मवाद के अन्तर्-रहस्य का उद्घाटन नहीं कर सके। किन्तु जैनकर्मविज्ञान ने कर्मविज्ञान पर जैसा सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध चिन्तन प्रस्तुत किया है, वैसा अन्य दार्शनिकों ने नहीं किया। वैदिक और बौद्ध-परम्परा में कर्म-विषयक कोई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ या शास्त्र उपलब्ध नहीं है, जबकि जैन परम्परा में कर्म का अतीव सूक्ष्म, सुव्यवस्थित एवं विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। कर्मविज्ञान से सम्बन्धित कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रह, कम्मपयडि गोम्मटसार, महाबंधो, कसायपाहुड, बंधविहाणे, ठिइबंधो, अणुभागबंधो, पयडिबंधी आदि महत्त्वपूर्ण विपुल ग्रन्थ जैन परम्परा में मिलते हैं। आगमों एवं आगमेतर ग्रन्थों में भी यत्र-तत्र कर्म से सम्बन्धित चर्चाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। अथ से इति तक उठने वाले प्रश्नों का समाधान जैन कर्म विज्ञान में ___कहना होगा कि जैन कर्म विज्ञान ने अथ से इति तक उठने वाले कर्म से सम्बन्धित प्रश्नों को समाहित किया है। कुछ प्रश्न इस प्रकार हैं-कर्म क्या है? कर्म अचेतन पौद्गलिक है और आत्मा चेतन है, ऐसी स्थिति में आत्मा के साथ कर्म का बन्ध कैसे होता है ? किन-किन कारणों से होता है ? किस कारण से कर्म में कैसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है? कर्म अधिक से अधिक और कम से कम कितने समय तक आत्मा के साथ सम्बद्ध रहता है ? आत्मा से सम्बद्ध कर्म कितने समय तक फल नहीं दे पाता? विपाक का नियत समय अथवा फल बदला जा सकता है या नहीं? यदि बदला जा सकता है तो उसके लिए कैसे आत्म-परिणाम होने चाहिए? क्या एक कर्म दूसरे कर्म रूप में परिवर्तित हो सकता है ? उसकी बंधकालीन तीव्र-मन्द शक्तियाँ कैसे बदली जा सकती हैं ? बाद में विपाक (फल) देने वाला कर्म पहले कब और किस प्रकार भोगा जा सकता है ? आत्मा के सैकड़ों प्रयासों के बावजूद भी कर्म का विपाक बिना भोगे क्यों नहीं छूटता ?, कितना ही बलवान कर्म हो, किन्तु उसका विपाक शुद्ध आत्म-परिणामों से कैसे रोक दिया जाता है ? आत्मा कर्मों का कर्ता और भोक्ता किस तरह है ? संक्लेशरूप परिणाम अपनी आकर्षण शक्ति से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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