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जैन कर्म-विज्ञान की महत्ता के मापदण्ड १२३
आत्मा पर एक प्रकार की सूक्ष्म कर्मरज का पटल किस प्रकार डाल देते हैं ? आत्मा अपनी वीर्योल्लास शक्ति से ऐसे सूक्ष्मरज के पटल को कैसे उठा फेंकता है ? स्वभावतः शुद्ध आत्मा भी कर्म के प्रभाव से कैसे मलिन-सा प्रतीत होता है ? सहस्रों बाह्य आवरणों के होते हुए भी आत्मा किस प्रकार अपने शुद्ध स्वरूप को अभिव्यक्त कर लेता है ? वह अपनी उत्क्रान्तिवेला में पूर्वबद्ध तीव्रकर्मों को भी किस प्रकार क्षय कर डालता है? जब आत्मा अपने परमात्म-स्वरूप के दर्शन हेतु उत्सुक होता है, उस समय उसके और अन्तरायमूलक कर्म के बीच कैसा द्वन्द्वयुद्ध होता है ? और अन्त में वीर्यवान् आत्मा किन परिणामों से बलवान् कर्मों को परास्त कर देता है ? इस शरीरस्थ आत्म-मन्दिर में विराजमान परमात्म देव का साक्षात्कार कराने वाले सहयक परिणामों (अपूर्वकरण
और अनिवृत्तिकरण) का क्या स्वरूप है? कुछ देर के लिए उपशान्त कर्म किस प्रकार गुलांट खाकर प्रगतिशील आत्मा को पछाड़ देते हैं ? कौन-कौन-से कर्म बन्ध और उदय की अपेक्षा परस्पर विरोधी हैं ? किस कर्म का बन्ध किस अवस्था में अवश्यम्भावी और किस अवस्था में अनियत है ? किन कर्मों का फल देर से मिलता है ? अतीन्द्रिय आत्म-सम्बद्ध कर्म किस प्रकार की आकर्षण शक्ति से स्थूल कर्मयोग्य पुद्गलों को खींच लेता है ? और उनसे शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन, तैजस्, कार्मण शरीर आदि का निर्माण करता है ?' ये और इसी प्रकार के अन्यान्य कर्म से सम्बन्धित संख्यातीत प्रश्नों का सयुक्तिक और विशद समाधान जैन कर्म विज्ञान के साहित्य के सिवाय अन्य किसी भी दर्शन के साहित्य में नहीं मिलता। यही जैन कर्म विज्ञान की महत्ता है। जैन कर्म विज्ञान भी क्रिया-प्रतिक्रिया के नियम पर आधारित
भौतिक विज्ञान की महत्ता जिस प्रकार उसके क्रिया और प्रतिक्रिया के अटल नियम से सिद्ध होती है उसी प्रकार जैन कर्मविज्ञान की महत्ता भी क्रिया-प्रतिक्रिया के अटल नियम से सिद्ध होती है। महान् वैज्ञानिक न्यूटन ने एक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि क्रिया और प्रतिक्रिया एक साथ होती रहती हैं, अर्थात्-जीव जब कोई क्रिया (कर्म) करता है तो उसकी प्रतिक्रिया उसके द्वारा कृत कर्मानुसार उसकी आत्मा पर अवश्य अंकित होती है।
जैन कर्म विज्ञान भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है कि जब कोई जीव मन से, वचन से या काया से कोई क्रिया करता है तो उसके निकटवर्ती चारों ओर के सूक्ष्म परमाणुओं में हलन-चलन क्रिया प्रतिक्रिया रूप में उत्पन्न हो जाती है। विज्ञान के आधनिक आविष्कार बेतार के तार (Wireless Telegraphy), रेडियो, टेलीविजन आदि के कार्य से यह निर्विवाद सिद्ध है कि ये जब कार्य करते हैं तो
१. द्रष्टव्य,-पंचसंग्रह भा. ६ (मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म.) प्रस्तावना पृ. १३
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