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जैन कर्म-विज्ञान की महत्ता के मापदण्ड १२१
दुःख, दुःख समुदय, दुःखहान एवं दुःखहानोपाय भी इन चार तत्त्वों का सूचक है, किन्तु इन दोनों दर्शनों ने इनका विशेष विश्लेषण एवं स्पष्टीकरण नहीं किया है, जबकि जैनकर्मविज्ञान ने बन्ध, आस्रव, मोक्ष, निर्जरा एवं संवर इन पाँच तत्त्वों द्वारा तथा आम्नव एवं बंध के अन्तर्गत पुण्य-पाप को समाविष्ट करने से सात तत्वों द्वारा सर्वांगपूर्ण विवेचन एवं विश्लेषण करके जगत् के जीवों को महान प्रेरणा दी है।
इतना ही नहीं, जैनकर्मविज्ञान ने पंच संग्रह नामक बृहत्ग्रन्थ द्वारा योगोपयोगमार्गणा, बन्धक (कर्म बाँधने वाले जीव), बन्धव्य (बाँधने योग्य अष्टविधकर्म), बन्धहेतु (बंध के कारण राग-द्वेष या कषाय और योग अथवा मिथ्यात्वादि पाँच) एवं बन्ध (कर्मपरमाणुओं का आत्मप्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह हो जाना) तथा बन्ध विधि (बन्ध के प्रकृतिबन्धादि चार प्रकार) का सांगोपांग वर्णन करके कर्मसिद्धान्त के प्रतिपादकों में सर्वोपरि स्थान प्राप्त कर लिया है।'
कर्मप्रकृतियों के साथ बन्धादि का निरूपण जैन कर्म विज्ञान में ही
इसके अतिरिक्त छह कर्मग्रन्थों द्वारा जैनकर्मविज्ञानमर्मज्ञों ने कर्म की मूल तथा उत्तर प्रकृतियों का निरूपण करने के साथ-साथ गुणस्थान- क्रम को आधार बनाकर जीवों की बन्ध, उदय, उंदीरणा और सत्ता का वर्णन भी बहुत सूक्ष्मता से किया है। गुणस्थान-क्रम के आधार पर जीव की बंधादि - योग्यता का निरूपण जैन कर्म विज्ञान में
संसारी जीव अनन्त हैं। उनमें से एक-एक व्यक्ति का निर्देश करके उसकी बन्धादि सम्बन्धी योग्यता बताना असम्भव है और एक व्यक्ति की भी बन्धादि से सम्बन्धित योग्यता सदैव एक-सी नहीं रहती; वह भी परिणामों की धारा के परिवर्तन के साथ प्रतिक्षण बदला करती है। अतः कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने देहधारी जीवों की आन्तरिक शुद्धि की उत्क्रान्ति-अपक्रान्ति के आधार पर उनको १४ भेदों (स्थानों) में वर्गीकृत किया है, जिसे गुणस्थान - क्रम कहते हैं । १४ गुणस्थानों के माध्यम से अनन्त देहधारियों की बन्धादि सम्बन्धी योग्यता बतलाना बहुत ही आसान हो गया । और एक जीव (व्यक्ति) की बन्धादि योग्यता, जो प्रतिसमय बदला करती है, उसका प्रतिपादन भी १४ में से किसी न किसी गुणस्थान द्वारा किया जा सकता है। जैन कर्म विज्ञान मर्मज्ञों द्वारा सांसारिक जीवों की आन्तरिक शुद्धि के तारतम्य का पूर्णतया वैज्ञानिक तथा अनुभवसिद्ध जाँच-पड़ताल करके गुणस्थान - क्रम के १४ विभागों के निरूपण से यह बतलाना या समझना सुगम हो गया है कि अमुक प्रकार की आन्तरिक अशुद्धिया
१. देखें - पंचसंग्रह ( चन्द्रर्षिमहत्तर) भा. १ गा. ३
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