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________________ (१०) -.-.-.-.-.-'-' जैन कर्म-सिद्धान्त की व्यापकता और सत्यता का निस्संकोच प्रतिपादन कर सकते हैं। मैंने अनेकानेक ग्रंथों के परिशीलन से जो तथ्य/सत्य प्राप्त किये हैं, उन्हीं के आधार पर मैंने यह व्यापक ग्रंथ तैयार करने का प्रयास किया है और यह प्रमाणित करने का यथासम्भव प्रयत्न किया है, कि कर्म-बन्धन एवं कर्मफलभोग की प्रक्रिया समझ लेने पर जीवन में कभी भी निराशा/हताशा का मुंह नहीं देखना पड़ता, अस्तु। प्रारम्भ में सम्पूर्ण विषय को दो भागों में ही प्रकाशित करने की योजना थी, परन्तु ज्यों-ज्यों लेखन होता गया, ग्रंथ का आकार-प्रकार भी बढ़ता चला । गया और अब लगता है सम्पूर्ण ग्रंथ चार या पांच भाग में परिपूर्ण होगा। इसका तृतीय भाग भी छप रहा है। तृतीय भाग में छठा खण्ड है, जिसमें आसव, संवर और बंध का विवेचन है। आगे के भागों में निर्जरा तत्व तथा मोक्ष तत्व का एवं विभिन्न कर्म प्रकृतियों का विवेचन करने का प्रयास किया गया है। ___कर्म-विज्ञान में प्रयुक्त कठिन शब्दों का शब्दकोष एवं शब्दसूची भी देने का विचार है, यदि संभव हो सका तो ग्रन्थ सम्पूर्ण होने पर अन्तिम खण्ड में देने का प्रयास किया जायेगा। कर्म विज्ञान के प्रथम भाग के समान इस द्वितीय भाग में भी मैंने आधारभूत ग्रंथों की प्रामाणिक सामग्री का उपयोग कर प्रत्येक विषय का विस्तृत और सर्वांगपूर्ण विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस हेतु सैद्धान्तिक और कार्मग्रान्थिक कृतियों का उपयोग तो किया ही है। साथ ही साथ पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वानों के विचारों का भी यथास्थान तर्कयुक्त ढंग से समावेश किया है। उनकी कृतियों को भी समक्ष रखा है। इतना ही नहीं, उन पत्र-पत्रिकाओं का भी उपयोग किया है, जिनमें सन्दर्भित विषय-सामग्री की उपलब्धि हुई है। उन सभी के प्रति मैं हार्दिक कृतज्ञता अभिव्यक्त करता हूँ। इस प्रकार मैंने इस महान ग्रंथ को सर्वांगपूर्ण स्वरूप देने का हर संभव प्रयत्न किया है। आशा ही नहीं, विश्वास है-मेरा यह प्रयास सफल होगा। जिज्ञासुओं तथा मनीषियों को भी जैन कर्म विज्ञान संबंधी यथार्थ जानकारी प्राप्त होगी और कर्म संबंधी अनेक भ्रान्तियों का निरसन होगा। आभार प्रदर्शन सर्वप्रथम मैं श्रमण संघ के अध्यात्मनायक आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषि जी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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