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________________ ( ९ ) ऐसा भी नहीं है कि इस जन्म में किये हुए कर्मों का फल, इसी जन्म में न मिले। प्रत्यक्ष देखा जाता है कि चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि पापों का फल इस जन्म में मिल जाता है, ऐसे लोगों को जेलखाने की कठोर सजा भोगनी पड़ती है। बहुत से क्रूर कर्मों का फल तत्काल हाथोंहाथ मिलता भी देखा /सुना जाता है। सार यह है कि अन्य भौतिक विज्ञानों, मनो-विज्ञान आदि के समान कर्मों (कर्म-विज्ञान) के भी कुछ निश्चित नियम और सिद्धान्त हैं तथा उन्हीं के अनुसार उनका फलभोग प्राप्त होता है। इस सिद्धान्त को जैन आगम तथा अन्य धर्म शास्त्रों के विविध उदाहरण देकर प्रस्तुत ग्रन्थ में स्पष्ट कर दिया गया है। और यह सामान्य तथ्य है कि शुभ कर्मों अथवा पुण्य से आत्मा का उत्थान होता है अशुभ कर्म अथवा पाप से पतन; किन्तु कुछ ऐसे अकुशल व्यक्ति भी होते हैं जिन्हें सभी प्रकार के अनुकूल साधन और परिस्थितियां प्राप्त होती हैं, शुभ कर्मोदय होता है, फिर भी वे उन सुविधाओं को प्राप्तं करके अपना आत्मिक पतन कर लेते हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे भी होते हैं जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी आत्मिक उन्नति के पथ पर बढ़ जाते हैं। यह मानवों की सुप्रवृत्ति और दुष्प्रवृत्तियों का लेखा-जोखा है। आधुनिक भौतिक एवं चिकित्सा वैज्ञानिक उन्नति से समायोजन करते हुए संसार की कर्म-विज्ञानसम्मत शाश्वत और प्रयत्नसाध्य दो प्रकार की व्यवस्थाएं बताई गई हैं। मानव द्वारा जितनी भी उन्नति हुई है, वह संसार की प्रयत्नसाध्य व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त जन साधारण और यहाँ तक कि विद्वानों, मनस्वियों में फैले इस भ्रम, कि पुण्य से स्वर्ग की प्राप्ति होती है अथवा पुण्यात्मा धनी होते हैं, को प्रमाण पुरस्सर तर्कों और चिन्तनपूर्ण अभिव्यक्तियों द्वारा निरस्त करके पुण्य के यथार्थ स्वरूप का निर्णय किया गया है। जो सभी के लिए मननीय है। इसी प्रकार अभावग्रस्तता, दीन-हीन दशा आदि पाप का फल है, इस भ्रम को भी उत्स्थापित करके यह प्रतिपादित किया गया है कि पाप प्रवृत्ति के साथ-साथ प्राणी की पुरुषार्थहीनता भी इन अभाव : दुर्दशाओं के लिए जिम्मेदार है। इस प्रकार कर्मविज्ञान द्वारा पुरुषार्थ का महत्व एवं उपयोगिता को स्थापित करके आशावादी दृष्टिकोण की प्रेरणा दी गई है। कर्मवाद का विषय बहुत ही गंभीर और व्यापक है। प्राचीन ग्रन्थों में तो. इस विषय पर विपुल मात्रा में चिन्तन किया ही गया है, परन्तु वर्तमान विचारकों, विद्वानों और नीतिशास्त्र एवं समाजशास्त्र के विवेचकों ने भी बहुत प्रयोगों द्वारा इस विषय को पर्याप्त सुस्पष्टता दी है। जिसके आधार पर हम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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