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________________ जैन कर्म-विज्ञान की महत्ता के मापदण्ड ११५ शिखर पर पहुँचने की प्रेरणा करता है। अर्थात् वह जिज्ञासु आत्मा को कर्मयुक्त न रहने देकर स्वकीय आध्यात्मिक पुरुषार्थ से उसमें परमात्मा बनने का भाव जागृत कर देता " जैनकर्मविज्ञान द्वारा प्रत्येक जीव की कर्मजन्य सभी अवस्थाओं का वर्णन अन्य दर्शन और धर्म-पंथ जहाँ जीवों को अपने-अपने कर्म के अनुसार फल प्राप्त होने की सामान्य बात कहते हैं, वहाँ जैनकर्म-विज्ञान ने संसारगत असंख्य प्रकार के जीवों की गति, इन्द्रिय, काय, योगत्रय, वेद, कषाय, आदि की अपेक्षा से कर्मबन्ध, कर्मोदय, कर्म की सत्ता, आदि का पृथक्-पृथक् विश्लेषण किया है, इनकी पृथक्-पृथक् मार्गणा के माध्यम से। जीवों की अनन्त भिन्नता का चौदह मार्गणाओं द्वारा वर्गीकरण बनावट, चूँकि संसार में अनन्त जीव हैं। प्रत्येक जीव का बाह्य और आन्तरिक जीवन भी एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् है । शरीर की आकृति, रचना, डील-डौल, इन्द्रियों की रंग-रूप, चाल-ढाल, कद, शरीरशक्ति, विचारशक्ति, मनोबल, कषायादि विकार-जन्य भाव और आचरण (चारित्र) आदि समस्त विषयों में एक जीव दूसरे जीव से भिन्न हैं। और यह भिन्नता कर्मजनित औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा शायिक भावों पर एवं सहज पारिणामिक भावों पर निर्भर है। इन अनन्त भिन्नताओं को कर्मविज्ञानपारंगत ज्ञानी महर्षियों ने अपने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर संक्षेप में चौदह विभागों में विभाजित किया है। इन्हें मार्गणा शब्द से परिभाषित किया गया है, वह इसलिए कि 'जिस प्रकार से अथवा गति आदि जिन अवस्थाओं - पर्यायों आदि में संसारी जीवों को देखा गया है, उनकी उसी रूप में मार्गणा - गवेषणा या विचारणा करना ही मार्गणा' है।' संसार के अनन्त - अनन्त जीवों की बाह्य एवं आन्तरिक कर्मजन्य अनन्त भिन्नताओं के उक्त बुद्धिगम्य वर्गीकरण को कर्मविज्ञानशास्त्र में 'मार्गणा' कहा गया है। ये १४ मार्गणाएँ इस प्रकार हैं (१) गतिमार्गणा, (२) इन्द्रियमार्गणा, (३) कायमार्गणा, (४) योग-मार्गणा, (५) वेद-मार्गणा, (६) कषायमार्गणा, (७) ज्ञानमार्गणा, (८) संयम - मार्गणा, (९) दर्शन-मार्गणा, (१०) लेश्यामार्गणा, (११) भव्य - मार्गणा, (१२) सम्यक्त्वमार्गणा, १. जैनधर्म का प्राण (पं. सुखलालजी) उद्धृत (अध्यात्म विज्ञान प्रवेशिका ) से पृ. ३ (क) जाहिं व जासु व जीवा मग्गिज्जेते, जहा तहा दिट्ठा । (ख) तृतीय कर्म ग्रन्थ (मरुधर केसरी मिश्रीमल जी महाराज) प्रस्तावना (श्रीचंदजी सुराना देवकुमार जैन) से पृ. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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