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________________ ११४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) से अस्थायी तथा हेय हैं और अमुक-अमुक अवस्थाएँ स्वाभाविक होने के कारण स्थार्य तथा उपादेय हैं।' इससे स्पष्टतया यह ध्वनित हो जाता है कि आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगामी है, अध्यात्म-विकासशील है। ऐसी स्थिति में वह वर्तमान में प्राप्त अथवा कृतकर्मों के कारण उपलब औपाधिक या वैभाविक अवस्थाओं से कैसे मुक्त हो सकता है और किस प्रकार, किस विधि से अपनी स्वाभाविक एवं वर्तमान में सुप्त ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की स्वाभाविक शक्तियों को जागृत या प्रादुर्भूत कर सकता है, तथा अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप, शुद्ध स्व-भाव का किस प्रकार विकास कर सकता है ? जैनकर्मविज्ञान की महत्ता को प्रमाणित करने वाले कार्य जैनकर्म-विज्ञान की महत्ता इसी से प्रमाणित हो जाती है कि उसने कर्मों का ही स्वरूप, स्रोत, बन्ध और उनके भेद-प्रभेद बताकर ही छुट्टी नहीं पा ली, अपितु इसके साथ ही कर्मों से मुक्त होने तथा आने वाले नये कर्मों को रोकने तथा पहले बांधे हुए कर्मों से छूटने एवं सर्वथा कर्ममुक्त होने का उपाय भी संवर, निर्जरा और मोक्ष के रूप में बताया इतना ही नहीं, शरीर और आत्मा की अभिन्नता अथवा शरीर से सम्बन्धित शरीर, अंगोपांग, इन्द्रियाँ, मन, वाणी, बुद्धि, तथा स्व-जन परिजन, धन, मकान, जमीन आदि पर-पदार्थों-परभावों में आत्मभाव (आत्मा के ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति रूप स्वाभाविक निजीगुण) को अपना (मेरा) मानने की अहंत्व-ममत्व बुद्धि को जैनकर्म विज्ञान पृथक्-पृथक् विश्लेषण करके बताता है। और स्व एवं पर के अभेद भ्रम को दूर करके भेदविज्ञान की प्रेरणा देता है। जिनकी रुचि और दृष्टि जैनकर्मविज्ञान के द्वारा खुल गई है, वे स्व-पर के अभेदभ्रम को दूर करके भेद-विज्ञान की सचाई को समझ लेते हैं, और बहिरात्मा से अन्तरात्मा बनकर परमात्मभाव की ओर अपने कदम बढ़ाते हैं। फिर जैनकर्मविज्ञान पहले कर्मों के घातिकरूप को क्षय करने की प्रेरणा देता है। अर्थात् वह अभेदभ्रम के कारण इष्टवियोग-अनिष्टसंयोग से उत्पन्न होने वाले आर्तरौद्र ध्यान से हटाकर, भेदविज्ञान की ओर झुकाता है, धर्म-ध्यान में प्रेरित करता है और फिर स्वाभाविक अभेद ध्यान (शुक्लध्यान) की ओर जिज्ञासु एवं मुमुक्षु को ले जाता है। इस प्रकार जैनकर्मविज्ञान आत्मा को कर्मों के जाल से निकालकर सर्वकर्ममुक्त, सर्वदुःखों से प्रहीण, अनन्तज्ञानादिचतुष्टय से युक्त उस आत्मा को अध्यात्म के सर्वोच्च १. देखें-कर्मग्रन्थ भा. ४ (पं. सुखलालजी) की प्रस्तावना पृ. ७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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