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________________ जैन कर्म-विज्ञान की महत्ता के मापदण्ड ११३ परमात्मभाव होते हुए भी वह वर्तमान में कर्मों से आवृत है। इस कारण उसने कर्म-बन्ध का कारण, कर्म आगमन के स्रोत एवं कर्म से आंशिक मुक्ति एवं सर्वथा मुक्ति इत्यादि तथ्यों का साथ-साथ में प्रतिपादन भी किया है। निष्कर्ष यह है कि जैनकर्मविज्ञान वेदान्तदर्शन की तरह 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' यह सारा ही दृश्यमान जगत् ब्रह्म है, कहकर केवल निश्चयनय (आदर्श) की बात ही कहता तो उसके सामने यह प्रश्न समुपस्थित होता कि संसार के विविध प्राणियों में गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद (काम), कषाय आदि को लेकर प्रत्यक्ष दृश्यमान विविधताएँ विसदृशताएँ, विषमताएँ या विचित्रताएँ क्यों हैं ? प्राणियों की ये विभिन्न अवस्थाएँ, क्यों कैसे और कब तक ? तथा इन उपाधियों से विकृत बनी हुई एवं आत्मा के विशुद्ध स्वभाव (परमात्मभाव) से दूर आत्माएँ कैसे और कब अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सकेंगी ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान किये बिना आदर्श की बात कहता तो वेदान्त आदि की तरह एकांगी हो जाता, अथवा मीमांसादर्शन की तरह केवल मानवजातिलक्ष्यी हो जाता। यही कारण है कि जैनकर्मविज्ञान ने आत्मा के पारमार्थिक स्वरूप का निरूपण करने के साथ-साथ उसके दृश्यमान वर्तमानकालिक व्यावहारिक स्वरूप का भी कथन किया है। जैनकर्मविज्ञान ने आत्मा की इन दृश्यमान अवस्थाओं को वैभाविक या कर्मोपाधिक (वेदान्त की भाषा में मायिक) बताकर आत्मा के शुद्ध स्वरूप (स्वभाव) की पृथकता की सूचना की है। अन्य दर्शनों के साहित्य में आत्मा की विकसित दशा का वर्णन तो विशदरूप से देखने को मिलता है, किन्तु अविकसित दशा में इसकी क्या स्थिति होती है ? विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने से पूर्व आत्मा ने किन-किन अवस्थाओं को पार किया एवं उन अवस्थाओं में आत्मा की क्या दशा होती है ? आत्मा के आध्यात्मिक विकास का मूलाधार क्या है ? इन और इस प्रकार की जिज्ञासाओं का समाधान एवं निरूपण बहुत ही अल्प • प्रमाण में मिलता है। जबकि जैनकर्मविज्ञान ने इन सब तथ्यों एवं स्थितियों का वर्णन अती विशद और विपुलरूप में किया है।' ..जैनकर्मविज्ञान द्वारा जीवों की सभी अवस्थाओं का वर्णन तात्पर्य यह है कि जैन-कर्म-विज्ञान सांसारिक जीवों के सिर्फ भेद-प्रभेद बता कर ही नहीं रह जाता, अपितु उनकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन करने के साथ ही यह श्री निरूपण करता है कि अमुक-अमुक अवस्थाएँ औपाधिक, वैभाविक या कर्मकृत होने १. (क) देखें - कर्मग्रन्थ भा. १ ( पं. सुखलालजी) प्रस्तावना पृ. १७ (ख) पंचसंग्रह भा. ७ का प्राकथन ( मरूधर केसरी मिश्रीमल जी महाराज) पृ. १७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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