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११६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
(१३) संज्ञिमार्गणा और (१४) आहार-मार्गणा।' इन चौदह विभागों के ६२ अवान्तर भेद हैं।
इनके लक्षण तथा इन मार्गणा की विधि के विषय में हमने इसी ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में 'कर्म के अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत-वैचित्र्य' शीर्षक निबन्ध में संक्षिप्त निरूपण किया है। अतः यहाँ इस विषय में अधिक न कह कर इतना ही कहना है,
जैनकर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने संसार के अनन्त जीवों की अनन्त भिन्नताओं का कर्मजन्य निरूपण बहुत ही खूबी से किया है। जीवों का आध्यात्मिक विकास क्रम १४ गुणस्थानों में
___ साथ ही इन १४ प्रकार की मार्गणाओं के माध्यम से जीवों के आध्यात्मिक गुणों के विकास-क्रम की १४ अवस्थाओं का भी निरूपण जैनकर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने किया है। जीवों के आध्यात्मिक विकास-क्रम को ध्यान में रखकर ज्ञानी पुरुषों ने इस प्रकार से भी १४ सोपान निर्धारित किये हैं, जिन्हें जैनदर्शन की परिभाषा में गुणस्थान कहा जाता
___आध्यात्मिक विद्या के प्रत्येक अध्येता की यह स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि आत्मा किस प्रकार कषायों और त्रिविधयोगों के कारण सम्बद्ध कर्मों से क्रमशः छुटकारा पाकर किस क्रम से आध्यात्मिक विकास करता है, तथा विकास के समय उसे कैसी-कैसी अवस्था की अनुभूति होती है ? इस जिज्ञासा की पूर्ति की दृष्टि से भी जैनकर्म विज्ञान-मर्मज्ञों ने विभिन्न जीवों के विकास-मार्ग की इन क्रमिक असंख्यात अवस्थाओं को १४ भागों में विभाजित किया है। इन १४ विकास-स्थितियों को चतुर्दश गुणस्थान' का
गया है।
इस गुणस्थान क्रम विभाग में ज्ञानीजन जीवों की मोह कर्म और अज्ञान की प्रथम गुणस्थानवर्ती प्रगाढ़तम- निम्नतम अवस्था से लेकर जीव की मोहरहित एवं योगरहित
१. (क) गइ-इंदिए य काए जोए-वेए-कसाय-नाणेसु।
संजम-दंसण-लेसा भव-सम्मे सन्नि-आहारे। चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ९ (ख) गइ-इंदिएसु काये जोगे वेदे कसाय-णाणे य।
संजम-दंसण-लेस्सा भविया सम्मत्त-सण्णि-आहार॥ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा.१४१ २. देखें-कर्मविज्ञान प्रथम खण्ड में 'कर्म के अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत्-वैचित्र्य' शीर्षक निबन्ध
चौदह गुणस्थान ये हैं-(१) मिथ्यात्व, (२) सास्वादन, (३) मिश्र, (४) अविरति सम्यग्दृष्टि, (५) देशविरति श्रावक, (६) प्रमत्तसंयत, (७) अप्रमत्तसंयत, (८) नियट्टिबादर, (९) अनियट्टिबादर, (१०) सूक्ष्मसम्पराय (११) उपशान्तमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगिकेवली, और (१४) अयोगिकेवली गुणस्थान।
-समवायांग १४वां समवाय
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