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११० कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
“सर्वप्रथम (अतीतकृत कर्म) बन्धन को सम्यक्रूप से जानो, समझो और फिर (वर्तमान में उसे ) तोड़ डालो।""
धर्म का प्रयोजन : अतीत के कर्मबन्धनों को तोड़ना एवं नये कर्मों को रोकना
अतीत के बन्धनों को तोड़ने के दो उपाय हैं- संवर और निर्जरा । यही धर्म या धर्मध्यान का प्रयोजन है, जो पूर्वोक्त गाथा में भगवान महावीर ने बताया है। अतीत के परिणामों से बचना धर्म का उद्देश्य नहीं है, किन्तु अतीत में कृतकर्मों के बन्धन को जानकर उसे तप, संयम, संवर आदि की साधना से काट डालना धर्म का उद्देश्य है। जो व्यक्ति संवर-निर्जरारूप धर्म की आराधना करता है, वह अतीत के प्रति जागरूक हो जाता है, अतीत में भरे हुए कर्म के भण्डार के प्रति सावधान एवं सजग होकर वह उनके उदय में रुकावट पैदा कर देता है, वह प्रतिरोधात्मक उपाय करता है। फिर वह अतीत के कर्म-संस्कारों से प्रभावित या पराजित नहीं होता । अन्ततः वह अतीत के संस्कारों के प्रभाव से बच जाता है, कर्मों के आक्रमण को वह विफल बना देता है। जो पूर्वकृत कर्मराशि तथा संस्कार राशि, साधक को प्रभावित करती है, उसके विरुद्ध ऐसी प्रतिरोधात्मक शक्ति या पंक्ति खड़ी कर देता है, जिसमें वह अतीत के संस्कार और कर्मों के प्रहार से बच जाता है। यही कर्मसिद्धान्त की त्रैकालिक उपयोगिता है जिसे प्रत्येक अध्यात्मसाधक को समझना आवश्यक है।
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(क) कर्मवाद से भावांश ग्रहण पृ. १७६ (ख) बुज्झिज्जति तिउट्टिज्जा, बंधणं परिजाणिया ॥
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- सूत्रकृतांग सूत्र श्रु. १, अ. १ उ. १ गा. १
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